कभी समाचार भेजने, शिक्षा को बढ़ावा देने, सूचना को प्रसारित करने के साथ-साथ वैश्विक संस्कृतियों में अभिव्यक्ति के अवसर को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाल रेडियो आज विज्ञान टेलिविजन और नये मीडिया के हमले से ढ़ल गया है। लेकिन बावजूद इसके नई खोजों के युग में भी इसकी प्रमुखता जीवित और शेष है। आज विश्व रेडियो दिवस है। तो आइये जानते हैं इससे संबंधित वो कहानियां जो कभी लोगों की दिलों पर दस्तक देती थी, आज गुम हो गयी है।
नहीं आती है झुमरी तिलैया से फरमाइश
फिल्म शोले के एक गीत ‘कोई हसीना जब रूठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती है…’ की फरमाइश की है झुमरीतिलैया से सोनू, मोनू, गोलू, चिंटू, पिंटू, रिंकी, बवली और गुडडू ने। रेडियो शिलांग, रेडियो नेपाल और विविध भारती पर प्रसारित होने वाले फरमाइशी गीतों को सुनकर बड़ी हुई पीढ़ी को झुमरीतिलैया जरूर याद होगा। रेडियो का कोई ऐसा शो नहीं होगा, कोई ऐसा दिन नहीं होगा जिस पर झुमरीतिलैया से गीतों की फरमाइश नहीं आती हो। अपने इस अनूठे शौक के कारण झारखंड का यह कस्बाई नगर पूरे देश में मशहूर हुआ।
यहां तक की प्रतियोगिता परीक्षाओं में भी यह पूछा जाने लगा कि देश में सबसे ज्यादा रेडियो पर गीतों की फरमाइश कहां से आती है? एक से एक रेडियो के शौकीन थे यहां। जिस गली से गुजरें गीतों पर कान लगाए लोग मिल जाते थे। लेकिन स्मार्ट फोन और केबल टीवी के जमाने में नई पीढ़ी के शहर में अब रेडियो पर नगमे कहीं नहीं गूंजते। भौगोलिक नक्शे पर भले यह शहर माइका खनन के लिए विश्वप्रसिद्ध है लेकिन असली पहचान इसे यहां के श्रोताओं ने ही दी।
रेडियो से झुमरीतिलैया शहर का चार दशक तक गहरा लगाव रहा। हाई फ्रिक्वेंसी का रेडियो एफएम यहां अब तक ठीक से नहीं पहुंच पाया है। कार में सफर के दौरान लोग एफएम रेडियो जरूर सुन पाते हैं, अन्यथा घरों, दफ्तरों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों और गांव की चौपाल से तो रेडियो पूरी तरह से गायब हो गया है।
बता दें झुमरीतिलैया कोडरमा जिले का प्रमुख शहर है। अजीब यह कि यहां का रेलवे स्टेशन कोडरमा है और स्टेशन से बाहर निकलें तो शहर झुमरीतिलैया। आलम यह था कि लोग टेलीग्राम से भी फरमाइशें भेजने लगे थे।
विश्व रेडियो दिवस का महत्व
विश्व रेडियो दिवस को मनाने का मुख्य उद्येश जनता और मीडिया को रेडियो के महत्व के बारे में जागरूक करना है। यह नेटवर्किंंग में सुधार करने और विभिन्न प्रसारकों के बीच अंतराष्ट्रीय सहयोग के निर्माण के लिए काम करने के लिए भी प्रोत्साहित करता है।
रेडियो का स्वर्णकाल
सभी विकासशील देशों, खासकर भारत में सातवें और आठवें दशक रेडियो का र्स्वणकाल कहा जा सकता है। 1983 में भारतीय क्रिकेट टीम की विश्व कप जीत को इस देश में देखा नहीं, सुना गया था। हालांकि 1981 के एशियाड के बाद दूरदर्शन का प्रचार-प्रसार बड़े स्तर पर हो रहा था, लेकिन 90 प्रतिशत लोगों के पास तब टीवी नहीं था
रेडियो के लिए लाइसेंस
आजादी के बाद भी भारत में कई सामान्य कामों के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। रेडियो के लिए ‘रेडिया एंड टेलीग्राफ एक्ट’ के तहत लाइसेंस बनवाना होता था। अधिकारी आप से कभी भी लाइसेंस दिखाने को कह सकते थे। आखिरकार सातवें दशक के अंत में लाइसेंस राज का खात्मा हुआ।
AM और FM तकनीक
एमप्लिट्यूट मॉड्यूलेशन (एएम) तकनीक शुरुआती रेडियो तरंगों का हाईवे था, जिसे मीडियम वेब और शॉर्ट वेब में बांटा जा सकता था। इसी तकनीक के कारण ही लंदन में बैठकर बीबीसी के प्रस्तुतकर्ता भारत में कार्यक्रम प्रसारित करते थे। आठवें दशक के अंत में फ्रीक्वेंसी मॉड्यूलेशन तकनीक आई और आज का लोकप्रिय एमएफ रेडियो दुनिया को मिला, जो मोबाइल फोन में समा चुका है।
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