चीन के मुद्दे पर अमरीका से गुटबन्दी भारत के लिए सही नहीं-फ्रैंक एफ. इस्लाम

अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने दो कार्यपालक आदेश पारित कर चीन के सोशल मीडिया नेटवर्क टिक टॉक और वीचैट पर यह कहते हुए प्रतिबन्ध लगा दिया है कि इनसे संयुक्त राष्ट्र अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर खतरा है। इन कार्यकारी आदेशों में बाइटडांस के स्वामित्व वाले टिक टॉक और टेनसेंट के स्वामित्व वाले वीचैट को 45 दिनों की समय सीमा में अमरीकी कंपनियों को बेचने को कहा गया, ऐसा नहीं होने पर अमरीका में पूर्ण प्रतिबंध लगाने की बात कही गयी।

पाबंदियों से अमेरिकी भविष्य अश्चितता की ओर

बाइटडांस ने तो बेहद प्रचलित वीडियो शेयरिंग प्लेटफॉर्म टिक टॉक को अमरीका में चलाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट से बातचीत शुरू भी कर दी है। यह आदेश जारी कर ट्रंप ने इस एक तरह से इस बिक्री को सुनिश्चित कर दिया है। वीचैट का इस्तेमाल अपने परिवार के सदस्यों और दोस्तों से चैटिंग और मोबाइल पेमेंट के लिए अमरीका में मुख्यतः चीनी बिरादरी करती है। इस पाबंदी से वीचैट के लिए अमरीका में भविष्य और अनिश्चित हो गया है।

टिक टॉक और वीचैट पर और इस प्रकार चीनी टेक्नॉलोजी, और व्यापारिक हितों पर ट्रंप की यह सख़्त कार्रवाई चीन के साथ राष्ट्रपति की पहले से चल रहे टकराव में नया मोर्चा खोलेगी। यह टकराव कृषि, डेयरी उत्पादों और दूसरे अमरीकी सामान को लेकर व्यापारिक युद्ध के समय शुरू हुआ था। अभी हाल में ट्रंप प्रशासन ने अमरीका में हुवाई की पहुंच और सरकारी फंड से हुवाई के सामान और उसकी सेवा लेने को सीमित करने के लिए कार्रवाई की है।

क्या चीन-अमरीका तनातनी के इस नवीनतम चरण से भारत को कोई लाभ या अवसर मिलेगा?

क्या चीन-अमरीका तनातनी के इस नवीनतम चरण से भारत को कोई लाभ या अवसर मिलेगा? इस तनातनी की शुरुआत 21 जून को हुई जब अमरीका ने ह्यूस्टन में चीन के कॉन्सलेट जनरल को बन्द करने का आदेश दिया और जवाब में चीन ने शिचुआन राज्य स्थित चेंगदू के अमरीकी कॉन्सलेट जनरल को बन्द करवा दिया। वाशिंगटन और नई दिल्ली, दोनों जगहों के विश्लेषक यह समझते हैं कि भारत को इसका लाभ मिलेगा। इस तर्क के पीछे के कारण को आसानी से समझा जा सकता है। टिक टॉक और वीचैट पर पाबंदी लगाकर अमरीका ने भारत का अनुशरण किया है। भारत ने अपनी धरती पर चीन के पीपल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिकों द्वारा घुसपैठ के जवाब में 57 चीनी ऐप्स पर जून के अंत में प्रतिबन्ध लगा दिया था।

चीन के साथ जारी गतिरोध से अमेरिका पर क्या असर ?

भू-राजनीतिक दृष्टि से इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान चीन-अमरीका तनाव भारत के लिए समय पर आया अवसर है क्योंकि गर्मी की शुरुआत से लद्दाख की सीमा पर चीन के साथ कई गतिरोध बने हुए हैं। इससे चीन के मोर्चे पर भारत और अमरीका के सुरक्षा हितों की एका का महत्व बढ़ जाता है।
इस कारण से चीन के साथ तनाव बढ़ाने की सोच पैदा हो सकती है ताकि लद्दाख में कुछ रियायत मिल जाए। घर बैठे योद्धा बने कई लोगों ने प्रधानमंत्री को अमरीका से मिल जाने और चीन को क्रिकेट के शब्द में बैकफुट पर जाने को मजबूर करने की सलाह दी है।

यह सही है कि नई दिल्ली और वाशिंगटन की सामरिक साझीदारी, विशेषकर पिछले दो दशकों में, मज़बूत हुई है लेकिन भारत कभी भी चीन के मुद्दे पर खुलकर अमरीका के पाले में नहीं गया है जबकि इसके लिए अमरीका दबाव डालता रहा है। अमरीका-भारत के ऐतिहासिक न्यूक्लियर समझौते को, जो 2008 में हुआ था, व्यापक तौर पर चीन के विरुध्द भारत को दमदार बनाने के कदम के तौर पर देखा गया था। लेकिन चीन विरुद्ध आक्रामक लोगों को निराशा हाथ लगी क्योंकि भारत ने कभी इस भूमिका को सहजता से नहीं लिया।

यह झिझक आजतक क़ायम है। भारत और अमरीका में ऐसे कई आह्वान के बावजूद नई दिल्ली गलवान घाटी में चीन के आक्रमण के बाद अमरीका से गलबहियां करने को तैयार नहीं हुआ। यह काफी विवेकपूर्ण निर्णय लगता है। किसी भी परिस्थिति में इसकी संभावना नहीं दिखती कि अमरीका पूरी तरह किसी शीत युद्ध में शामिल होगा जैसा कि उसने सोवियत संघ के साथ बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अधिकांश समय किया था। चीन अमरीका या इसके यूरोपीय सहयोगियों के लिए कोई ज़मीनी ख़तरा नहीं है जैसा के उस समय सोवियत यूनियन था।

आर्थिक दृष्टि से अमरीका और चीन किन्हीं भी दो बड़े स्वतंत्र देशों के मुकाबले एक दूसरे से अधिक जुड़े हुए हैं। इसके अलावा अमरीका के कई सामान का स्रोत होने के कारण चीन के पास एक ट्रिलियन डॉलर के समतुल्य अमरीकी शेयर भी हैं।

इसकी भी प्रबल संभावना है कि अगर नवंबर में ट्रंप चुनाव हार गये तो चीन-अमरीका के संबंध का रिसेट बटन दब जाएगा। और अगर ट्रंप दोबारा निर्वाचित हो भी जाते हैं तो इसकी संभावना नहीं है कि वे अपने दूसरे कार्यकाल में पूर्ण आर्थिक युद्ध को अपनाएंगे।

जानकार पर्यवेक्षक बताते हैं कि टिक टॉक और वीचैट पर प्रतिबंध का तात्कालिक कारण भू-राजनीतिक नहीं बल्कि घरेलू राजनीति है। कोविड -19 से बुरी तरह बर्बाद हो रही अमरीकी हृदयस्थली और प्रत्याशित आर्थिक बेहतरी न होने के कारण राष्ट्रपति के दोबारा चुने जाने की संभावना काफी मद्धिम हुई है।

अपने कार्यकाल में स्टॉक मार्केट को बल प्रदान करने के काफी प्रयासों के बावजूद ट्रंप अपने पुनर्निर्वाचन अभियान में आर्थिक स्थिति को प्राथमिक मुद्दा बनाने वाले थे लेकिन कोविड-19 के प्रभाव ने अमरीकी अर्थव्यवस्था को हिला दिया है।

वास्तव में, ताज़ातरीन रिपोर्ट से पता चलता है कि डेढ़ करोड़ अमरीकी अब भी बेरोजगार हैं। और, तीन करोड़ लोग किसी न किसी तरह का बेरोजगारी भत्ता पा रहे हैं। इन परिस्थितियों में नवम्बर से पहले किसी सार्थक और वृहत आर्थिक कायापलट की आशा क्षीण हो जाती है।

इसके साथ, कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने के लिए किसी राष्ट्रीय योजना और प्रक्रिया विकसित करने में ट्रंप की विफलता से बहुत से मतदाताओं के मन में उनकी क्षमता के बारे में गंभीर प्रश्न खड़े हुए हैं। रियलक्लियरपॉलिटिक्स औसत सर्वे के अनुसार हर पांच में से तीन अमरीकी वैश्विक महामारी से निपटने के ट्रंप के तौर-तरीके से सहमत नही थे।
ट्रंप कभी अपने खराब प्रदर्शन की ज़िम्मेदारी नहीं ले सकते। उनके मन की बात यह है कि अगर राष्ट्रपति पद बरक़रार नहीं रख पाते हैं तो इसका एक मात्र कारण चीन और अपनी चहारदीवारी से बाहर वायरस के संक्रमण को रोकने में इसकी नाकामी है। उन्होंने ही कोविड-19 को “चीनी वायरस” कहना शुरू किया था। उनकी कोशिश थी कि इस तरह इस महामारी की रोकथाम में अपनी विफलता से ध्यान भटकाया जाए। यह भटकाने की नीति शुद्ध रूप से ट्रंप की पहचान है। इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रपति ने क्यों बीजिंग के साथ तनाव बढ़ाने का रास्ता चुना है। यह कोई गंभीर वैचारिक या नीति आधारित कदम नहीं है। यह मुख्यतः व्यक्तिगत और राजनीति से प्रेरित कदम है जो पुनर्निर्वाचन के लिए हथकंडे के तहत अपनाया गया है।

इस परिप्रेक्ष्य में भारत को बीजिंग और वाशिंगटन के अगले कदम और नवंबर में अगले राष्ट्रपति के चुनाव परिणाम का इंतज़ार करना चाहिए। इसके बाद ही इसे आगे की नीति तय करना चाहिए। और इसे सतर्कता के साथ करना चाहिए।

(फ्रैंक एफ. इस्लाम वाशिंगटन डीसी स्थित उद्यमी और सामाजिक विचारक हैं। ये उनके निजी विचार हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।)