गांधी, खादी और आत्मनिर्भर भारत

भारत की आजादी की लड़ाई के महानायक महात्मा गांधी ने बहुत जल्दी ही यह समझ लिया था कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई सिर्फ हौसले का मामला नहीं है। उन्हें यह साफ दिखाई दे रहा रहा था कि साम्राज्यवाद की विचारधारा पर आधारित एक विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए एक वैकल्पिक विचारधारा की जरूरत होगी। और इस वैकल्पिक विचारधारा को सिर्फ राजनितिक स्तर पर ही सीमित नहीं रहना होगा, बल्कि इसका फैलाव आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी करना होगा। अंग्रेजों के उपनिवेशवाद की आर्थिक वैचारिकी के बरक्स आत्मनिर्भरता की बुनियाद पर महात्मा गांधी द्वारा खड़ा किया गया स्वदेशी आर्थिक विकल्प ही ‘खादी’ के नाम से मशहूर हुआ। यही वजह रही कि बापू ने हमेशा इस बात का उद्घोष किया कि ‘खादी केवल वस्त्र नहीं, बल्कि विचार है’। इस अर्थ में गांधी, खादी और आजादी का आपस में एक गहरा नाता रहा।
खादी के जरिए महात्मा गांधी ने सारी दुनिया को यह बता दिया कि स्वावलंबन और आत्मसम्मान की भूख ने अब हर भारतवासी के मन में आजादी हासिल करने के हौसले को बढ़ा दिया है। बापू के 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के समय अंग्रेजी कपड़ा उद्योग अपने चरम पर था। अंग्रेज भारत से कच्चा माल ले जाकर कपड़े तैयार करते और फिर उन तैयार कपड़ो को भारत में बेचते थे। अंग्रेजों के इस कदम से स्थानीय उद्योग बर्बाद हो चुका था और स्थानीय लोग बेहद परेशान थे। उन दिनों देश में एक स्वदेशी आन्दोलन चल तो रहा था, लेकिन स्वदेशी की भावना को परवान चढ़ाने की जरूरत को गंभीरता से बापू ने महसूस किया। आजादी की लड़ाई में पूरी तरह उतरने से पहले देश भ्रमण के दौरान देश में आम लोगों की स्थिति देखकर उन्होंने यह अंदाजा लगा लिया गया था कि खादी ही वह कारगर हथियार है जिसके जरिए एक शासित मुल्क को उसके शासक के बराबर ताल ठोककर खड़ा किया जा सकता है। उनकी नजर में स्थानीय खादी को बढ़ावा देना अंग्रेजी उद्योग से मुकाबला करने का एक अचूक अहिंसात्मक हथियार था। यही नहीं, खादी उनके लिए धर्म और जात-पात में बंटे भारतीय समाज को जोड़ने का भी एक सटीक नुस्खा था। खादी के जोर पकड़ने से स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने जैसे जरूरी फायदे तो होने ही थे।

महात्मा गांधी के बारे में विस्तार से अध्ययन करने वाले विद्वानों की अगर मानें तो चंपारण सत्याग्रह के समय के एक वाकये से औपनिवेशिक सत्ता पर महात्मा की खादी और स्वदेशी की इस अवधारणा के असर को आसानी से समझा जा सकता है। बापू जब चंपारण आए, तो उस दौरान उन्होंने खादी ही पहना। उनके इस कदम के बारे में इरविन नाम के एक पत्रकार ने ‘दी पायनियर’ नाम के एक अखबार में उनपर नौटंकी करने और आम जनता को मूर्ख बनाने का आरोप लगाते हुए एक पत्र लिखा। अपने पत्र में उसने लिखा कि सच्चाई यह है कि हर पढ़ा-लिखा रईस भारतीय औरों से खुद को बेहतर समझने के लिए पाश्चात्य संस्कृति वाले कपड़े ही पहनता है।
इसके जवाब में, 30 जून, 1917 को महात्मा गांधी ने इसी अखबार में एक पत्र लिखा। उन्होंने लिखा कि पहनावे के असर से वो अब ठीक से वाकिफ हुए हैं। उन्होंने आगे लिखा कि मैंने यह तय किया है कि अब खुद या अपने साथियों द्वारा बुने हुए खादी ही पहनूंगा, जो कि पूरी तरह से स्वदेशी होगा। उन्होंने इरविन के पत्र का हवाला देते हुए आगे कहा कि मैंने यह राष्ट्रीय वस्त्र इसलिए पहना क्योंकि एक भारतीय बनने का यही सबसे अच्छा तरीका है और मैं यह मानता हूँ कि अंग्रेजी तरीके का कपड़ा पहनना हमारे पतन और कमजोरी को दर्शाता है। अंग्रेजी कपड़े पहनकर हमलोग एक राष्ट्रीय पाप करने के साथ – साथ उस कपड़े को नजरअंदाज कर रहे हैं जो एक आम भारतीय की जरूरतों के अनुरूप है। खादी सस्ता और साफ-सफाई के लिहाज से भारतीय परिवेश के लिए पूरी तरह से अनुकूल है।

साफ है कि भारतीय होने का यह एहसास और उस पर गर्व करने की सोच ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए एक बड़ा झटका जैसा था। लिहाजा बापू खादी को अपनाने के विचार पर जोर देते चले गए। इसी दौरान वर्ष 1919 में ‘दी आल इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन’ की स्थापना हुई। वर्ष 1920 आते-आते खादी और महात्मा गांधी एक दूसरे के पर्याय हो गए। उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि अंग्रेज अपनी ताकत की वजह से नहीं, बल्कि हमारी कमजोरी की वजह से इस देश पर शासन कर रहे हैं। खादी इस कमजोरी से उबरकर मजबूत बनने का एक रास्ता है। उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में 8 दिसंबर 1921 को लिखा कि चरखा इस देश की समृद्धि के साथ – साथ उसकी स्वतंत्रता का प्रतीक है। उनके इस ऐलान के बाद अब हर घर खादी से जुड़ने लगा। उन्होंने 1927 में खादी यात्रा भी निकली। कुल मिलाकर, आजादी की लड़ाई के सफर में खादी महात्मा गांधी की वैचारिक लाठी बनकर चला और इसके व्यापक फलक के भीतर वस्त्र उद्योग से परे जाकर भारत के समग्र आर्थिक स्वावलंबन का सपना पला।

बापू की इस वैचारिक लाठी को आजादी के बाद आत्मनिर्भर भारत के मूलमंत्र के तौर पर आगे की ओर बढ़ना था। इस हकीकत को अच्छी तरह समझते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है। ऐसा करते हुए इस सरकार ने वर्तमान वैश्वीकरण के युग में आत्मनिर्भरता की परिभाषा में बदलाव की जरूरत को ठीक से पकड़ा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आत्मनिर्भरता का मतलब आत्म-केंद्रित होना कतई नहीं है। खासकर वैश्वीकरण के वर्तमान युग में तो बिल्कुल भी नहीं। अब जरूरत आत्मनिर्भरता को ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भारतीय अवधारणा के साथ जोड़ने की है। वर्तमान सरकार का मानना है कि दुनिया के एक हिस्से के तौर पर भारत अगर प्रगति करता है, तो ऐसा करके वह दुनिया की प्रगति में भी योगदान देता है। इस सरकार के नजरिए के अनुरूप ‘आत्मनिर्भर भारत’ के निर्माण में वैश्वीकरण का बहिष्कार नहीं, बल्कि दुनिया के विकास में अपनी भूमिका के निर्वहन का भाव है।

उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के 130 करोड़ लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लक्ष्य के साथ 12 मई 2020 को आत्मनिर्भर भारत अभियान योजना की घोषणा की। इस योजना में देश में रोजगार सृजन पर अधिक ध्यान दिया जायेगा। इस योजना के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने 20 लाख करोड़ रूपए का आर्थिक पैकेज घोषित किया, जोकि देश की जीडीपी का 10 प्रतिशत है।

इस सरकार ने आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना को पांच स्तंभों पर टिकाया है। पहला स्तंभ एक ऐसी अर्थव्यवस्था का है, जोकि सिर्फ वृद्धिशील परिवर्तन नहीं बल्कि लंबी छलांग सुनिश्चित करे। दूसरा स्तंभ एक ऐसे बुनियादी ढांचा का है, जो न सिर्फ भारत की एक अलग पहचान बनाए बल्कि बड़े पैमाने पर निवेश को भी आकर्षित करे। तीसरा स्तंभ एक ऐसी प्रणाली (सिस्टम) का है, जो 21वीं सदी की अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी संचालित व्यवस्थाओं पर आधारित हो। चौथा स्तंभ उत्साह से लबरेज एक ऐसी आबादी का है, जो आत्मनिर्भर भारत के लिए ऊर्जा का स्रोत बन सके। पांचवां और अंतिम स्तंभ मांग और उससे जुड़ी एक ऐसी व्यवस्था का है, जिसके तहत एक मजबूत आपूर्ति श्रृंखला (सप्लाई चेन) का उपयोग पूरी क्षमता से मांग बढ़ाने के साथ-साथ उसे पूरा करने के लिए किया जा सके।

आत्मनिर्भर भारत अभियान के लाभार्थियों में किसान, गरीब नागरिक, काश्तगार, प्रवासी मजदूर, कुटीर उद्योग में काम करने वाले लोग, लघु एवं मध्यम उद्यमों में लगे लोग, मछुआरे, पशुपालक और संगठित व असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले लोग शामिल होंगे।

इस योजना को दो चरणों में लागू किया जाएगा। पहले चरण में चिकित्सा, वस्त्र, इलेक्ट्रॉनिक, प्लास्टिक, खिलौने जैसे क्षेत्रों को तवज्जो देकर स्थानीय विनिर्माण और निर्यात को बढ़ावा दिया जाएगा। जबकि दूसरे चरण में फर्नीचर, फुटवियर, एयर कंडीशनर, पूंजीगत सामान, मशीनरी, मोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक, रत्न एवं आभूषण, फार्मास्यूटिकल्स, वस्त्र उद्योग पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा।
इस योजना के क्रियान्वयन से देश में औद्योगिक विकास के साथ-साथ उत्पादन के स्वरूप और कंपनियों / उद्योगों की कार्यशैली में भी बड़े बदलाव होंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि इन बदलावों के अनुरूप कृषि एवं सहायक क्षेत्रों को तैयार कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी योगदान दिया जा सकता है। मसलन, अलग – अलग किस्म के कृषि उत्पादों की पैकेजिंग या कृषि उत्पादों से तैयार होने वाले अन्य उत्पादों के उत्पादन के लिए स्थानीय स्तर पर छोटी औद्योगिक इकाइयों की स्थापना को बढ़ावा देकर देश की औद्योगिक उत्पादन श्रृंखला में ग्रामीण क्षेत्रों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है।

यह सही है कि आत्मनिर्भर भारत अभियान योजना के क्रियान्वयन के क्रम में सरकार को कई चुनौतियों से निपटना होगा, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इस योजना के जरिए वैश्विक स्तर पर भारत के एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने की पुरजोर संभावना है।

नेहा विपुल, कंटेंट लेखक(स्वतंत्र पत्रकार)