भीमराव अंबेडकर : जाति उन्मूलन का संघर्ष

डॉ० अंबेडकर ने राजनीतिक न्याय के लिए सामाजिक न्याय को आवश्यक बताया था। उनके शब्दों में, जनतांत्रिक शासन के लिए जनतांत्रिक समाज का होना जरूरी है। वास्तव में जनतंत्र शासन तंत्र नहीं, वरन् समाज तंत्र है। प्राचीन काल से ही न्याय का आर्थिक एवं सामाजिक पक्ष काफी महत्वपूर्ण रहा है। अरस्तु ने न्याय के लिए आर्थिक समानता को जरूरी बताया। कौटिल्य ने भी राज्य के सामाजिक एवं आर्थिक दायित्वों से संबंधित नीतियों का वर्णन किया है। मार्क्सवादी विचारधारा में न्याय के आर्थिक पक्ष पर सर्वाधिक जोर दिया था। कोल ने वकालत किया था कि “आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता एक ढकोसला मात्र है।” एंगेल्स का कहना है कि जब सर्वहारा वर्ग राज्य सत्ता पर अधिकार करेगा और इस सत्ता के सहारे उत्पादन के साधनों को पूंजी वादियों के दुर्बल हाथों से छीन करके उन्हें सार्वजनिक संपत्ति बनाएगा तभी मनुष्य पूर्णता स्वतंत्र होगा। डॉ० अंबेडकर ने भी सामाजिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए आर्थिक स्वतंत्रता को जरूरी बताते हुए राज्य समाजवाद की वकालत की है।

अंबेडकर ने दलितों और अछूतों में एक नई जागृति लायी । अंबेडकर का प्रादुर्भाव ऐसे समय हुआ जब हिंदू समाज में अछूतों की स्थिति जानवरों से भी बदतर थी । जानवर भी छुआ जा सकता था, पर मानव रूपी कथित अछूतों को देखना और छूना पाप समझा जाता था, गंगा स्नान कर पवित्र होना पड़ता था । अछूतों को मुख्य सड़क, मंदिर, पनघट, तालाब, आदि पर जाने पर रोक लगा रहता था । कमर में झाड़ू बांध कर चलना, हाथ और गले में पहचान हेतु काला धागा बांधना पड़ता था । इसी परिवेश में अंबेडकर का जन्म एक अछूत परिवार में हुआ था ।

डॉ० आंबेडकर एवं शैक्षणिक यात्रा

डॉ० अंबेडकर भारत के पहले दलित नेता थे । इनका जन्म 14 अप्रैल 1891 में हुआ था । अंबेडकर को महू छावनी में पैदा होने का अपरिमित लाभ मिला । उनके पिता रामजी सकपाल सेना में सूबेदार के पद पर कार्य कर अवकाश प्राप्त किए थे । अंबेडकर के नाना और उनके छह भाई सूबेदार, मेजर रह चुके थे । चूंकि मिलिट्री के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य थी इसलिए न केवल अंबेडकर के पिता बल्कि परिवार की महिलाएं भी साक्षर थीं । अंबेडकर की मां एक बेमिसाल सैनिक विरासत वाले महार परिवार से संबंधित थीं । अंबेडकर 5 साल की उम्र से छावनी के प्राइमरी स्कूल में जाने लगे थे और उनके कई साल सतारा के हाई स्कूल में गुजरे, बाद में उन्होंने भाई के साथ मुंबई के एलीफिंस्टन स्कूल में दाखिला लिया ।

इस स्कूल से वे एलीफिंस्टन कॉलेज में पहुंचे जहां उन्होंने अंग्रेजी और फारसी में बी०ए० की डिग्री ली । दलित होने के कारण वे संस्कृत नहीं पढ़ पाए । यह इच्छा उनकी पूरी नहीं हो सकी । बाद में 1913 में वह बड़ौदा रियासत की सेना में लेफ्टिनेंट के पद पर भर्ती हो गए । भर्ती के महज एक पखवाड़े के बाद उनके पिता का देहांत हो गया । इसके बाद अंबेडकर ने नौकरी छोड़ दी और बड़ौदा महाराज की आर्थिक सहायता से एक बार फिर अपनी पढ़ाई शुरू करने का फैसला लिया ।

1913 में अंबेडकर न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय गए । वहां उन्होंने 1915 में अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की । इस डिग्री के लिए उन्होंने प्राचीन भारत में व्यापार पर शोध पत्र लिखा था । 1916 में दलित पुत्र अंबेडकर ने जाति के विश्लेषण का पहला प्रयास शुरू किया और उन्होंने मानव शास्त्र के एक सेमिनार में “कास्टस इन इंडिया : देयर मेकैनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट” शीर्षक पर अपना पेपर प्रस्तुत किया । 1916 में अंबेडकर लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़ने के लिए अमेरिका से इंग्लैंड चले गए । अंबेडकर ने एल०एस०सी० में अर्थशास्त्र विभाग में अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया । 1922 में प्रस्तुत इस शोध पत्र का शीर्षक था “द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी” ‌। शोध पत्र पर इन्होंने विशेष ध्यान नहीं दिया । परिणामतः: पहले दौर में इसे खारिज कर दिया गया । लेकिन मार्च 1923 में इन्होंने शोध पत्र को दुरुस्त करके जमा किया और सफल रहे । 1927 में उन्हें “द इवोल्यूशन ऑफ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया” शीर्षक के अपने शोध पत्र के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय से पी०एच०डी० की डिग्री मिली । इस प्रकार वह डॉक्टर की डिग्री हासिल करने वाले पहले अस्पृश्य व्यक्ति बने ।

1923 में अंबेडकर ने मुंबई बार में अपना पंजीकरण कराया और अगले साल से ही उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे । यहां उन्हें दलित होने से कई समस्याओं का सामना करना पड़ा । फल स्वरूप उन्हें अपना खर्चा चलाने के लिए वकालत के साथ-साथ अध्यापन का भी काम करना पड़ा । 1918 में वह ब्रिटेन के सिडेनहेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थशास्त्र पढ़ा चुके थे । 1925 में उन्होंने वाटली बॉय अकाउंटेंसी ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में पार्ट टाइम लेक्चरर की नौकरी की । भीमराव अंबेडकर एक ऐसे महान व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपने ही पुरुषार्थ और प्रतिभा से अछूत जाति में उत्पन्न होने के बावजूद, अपने व्यक्तित्व के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त किया ।

डॉ० अंबेडकर एवं जाति व्यवस्था

बाबासाहेब अम्बेडकर का जन्म एक महार जाति के एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके परिवार को निरंतर सामाजिक और आर्थिक भेदभाव के अधीन रखा गया था। जाति व्यवस्था एक ऐसी प्रणाली है जिसमें एक व्यक्ति के स्थिति, कर्तव्यों और अधिकारों का भेद किसी विशेष समूह में किसी व्यक्ति के जन्म के आधार पर किया जाता है। यह सामाजिक असमानता का कठोर रूप है। वे एक सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने दलित समुदायों के लिए समानता और न्याय की मांग की थी। भारतीय जाति व्यवस्था में अछूतो को हिंदुओं से अलग कर दिया गया था। जिस जल का उपयोग सवर्ण जाति के हिंदुओं द्वारा किया जाता था, उस सार्वजनिक जल स्रोत का उपयोग करने के लिए दलितो पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बचपन में उन्हें महार जाति, जिसे एक अछूत जाति माना जाता है से होने के कारण सामाजिक बहिष्कार, छुआछूत और अपमान का सामना करना पड़ता था। बचपन में स्कूल के शिक्षक उनपर ध्यान नहीं देते थे और ना ही बच्चे उसके साथ बैठकर खाना खाते थे। उन्हें पानी के बर्तन को छूने तक का अधिकार नहीं था तथा उन्हें सबसे दूर कक्षा के बाहर बैठाया जाता था। जाति व्यवस्था के कारण, समाज में कई सामाजिक बुराईयां प्रचलित थीं। बाबासाहेब अम्बेडकर के लिए धार्मिक धारणा को समाप्त करना आवश्यक था जिस पर जाति व्यवस्था आधारित थी। उनके अनुसार, जाति व्यवस्था सिर्फ श्रम का विभाजन नहीं बल्कि मजदूरों का विभाजन भी था। वे सभी समुदायों की एकता में विश्वास रखते थे। ब्राह्मणों के खिलाफ गैर ब्राह्मण की रक्षा करने में उनकी जीत ने उनके भविष्य की लड़ाईयो की आधारशिला को स्थापित किया । डॉ बी.आर. अम्बेडकर ने अपने कार्यो से हिंदू जाति व्यवस्था के खिलाफ एक शक्तिशाली प्रहार किया। उन्होंने कहा कि चावदार तालाब का सत्याग्रह केवल पानी के लिए नहीं था, बल्कि इसका मूल उद्देश्य तो समानता के मानदंडों को स्थापित करना था। उन्होंने सत्याग्रह के दौरान दलित महिलाओं का भी उल्लेख किया और उनसे सभी पूराने रीति-रिवाजों को त्यागने और उच्च जाति की भारतीय महिलाओं के जैसे साड़ी पहनने के लिए आग्रह किया। महाड में अम्बेडकर जी के भाषण के बाद, दलित महिलाएं उच्च वर्ग की महिलाओं के साड़ी पहनने के तरिको से प्रभावित हुई, वहीं इंदिरा बाई चित्रे और लक्ष्मीबाई तपनीस जैसी उच्च जाति की महिलाओं ने उन दलित महिलाओं को उच्च जाति की महिलाओं की तरह साड़ी पहनने में मदद की। संकट का माहौल तब छा गया जब यह अफवाह फैल गयी कि अछूत लोग विश्वेश्वर मंदिर में उसे प्रदूषित करने के लिए प्रवेश कर रहे हैं। जिससे वहाँ हिंसा भड़क उठी और उच्च जाति के लोगों द्वारा अछूतों को मारा गया, जिसके कारण दंगे और अधिक बढ़ गये। सवर्ण हिंदुओं ने दलितों द्वारा छुए गये तालाब के पानी का शुद्धिकरण कराने के लिए एक पूजा भी करवायी।

डॉ० अंबेडकर एवं गांधी : वैचारिक प्रवाह

आम्बेडकर ने कहा था “छुआछूत गुलामी से भी बदतर है। दलित अधिकारों की रक्षा के लिए, उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, प्रबुद्ध भारत और जनता जैसी पांच पत्रिकाएं निकालीं। भीमराव आम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। आम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की आलोचना की। उनकी अछूत समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। वहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर गांधी से तीखी बहस हुई, एवं ब्रिटिश डॉ॰ आम्बेडकर के विचारों से सहमत हुए। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज को विभाजित कर देगी। गांधी को लगता था कि सवर्णों को छुआछूत भूलाने के लिए उनके ह्रदय परिवर्तन के लिए उन्हें कुछ वर्षों की अवधि दी जानी चाहिए, किन्तु यह तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्ण हिंदूओं द्वारा पूना सन्धि के कई दशकों बाद भी छुआछूत का नियमित पालन होता रहा।

1932 में ब्रिटिशों ने आम्बेडकर के विचारों के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की। कम्युनल अवार्ड की घोषणा गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श का ही परिणाम था। इस समझौते के तहत आम्बेडकर द्वारा उठाई गई राजनैतिक प्रतिनिधित्व की मांग को मानते हुए पृथक निर्वाचिका में दलित वर्ग को दो वोटों का अधिकार प्रदान किया गया। इसके अंतर्गत एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे व दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनने की आजादी थी। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों की ही वोट से चुना जाना था। इस प्रावधान से अब दलित प्रतिनिधि को चुनने में सामान्य वर्ग का कोई दखल शेष नहीं रहा था। लेकिन वहीं दलित वर्ग अपनी दूसरी वोट का इस्तेमाल करते हुए सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने से अपनी भूमिका निभा सकता था। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर दलित उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता।

गांधी इस समय पूना की येरवडा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही गांधी ने पहले तो प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने की मांग की। लेकिन जब उनको लगा कि उनकी मांग पर कोई अमल नहीं किया जा रहा है तो उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी। तभी आम्बेडकर ने कहा कि “यदि गांधी देश की स्वतंत्रता के लिए यह व्रत रखता तो अच्छा होता, लेकिन उन्होंने दलित लोगों के विरोध में यह व्रत रखा है, जो बेहद अफसोसजनक है। जबकि भारतीय ईसाइयो, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी (पृथक निर्वाचन के) अधिकार को लेकर गांधी की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई।” उन्होंने यह भी कहा कि गांधी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं। भारत में न जाने कितने ऐसे लोगों ने जन्म लिया और चले गए। आम्बेडकर ने कहा कि गांधी की जान बचाने के लिए वह दलितों के हितों का त्याग नहीं कर सकते। अब मरण व्रत के कारण गांधी की तबियत लगातार बिगड रही थी। गांधी के प्राणों पर भारी संकट आन पड़ा। और पूरा हिंदू समाज आम्बेडकर का विरोधी बन गया।

देश में बढ़ते दबाव को देख आम्बेडकर 24 सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे येरवडा जेल पहुँचे। यहां गांधी और आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से जाना गया। इस समझौते मे आम्बेडकर ने दलितों को कम्यूनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की। लेकिन इसके साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। इसके साथ ही अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत मे शिक्षा अनुदान मे पर्याप्त राशि नियत करवाईं और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया और इस तरह से आम्बेडकर ने महात्मा गांधी की जान बचाई। आम्बेडकर इस समझौते से असहज थे। उन्होंने गाँधी के इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। 1942 में आम्बेडकर ने इस समझौते का धिक्कार किया। ‘स्टेट ऑफ मायनॉरिटी’ नामक ग्रंथ में भी उन्होंने पूना पैक्ट संबंधी नाराजगी व्यक्त की हैं। भारतीय रिपब्लिकन पार्टी द्वारा भी इससे पहले कई बार धिक्कार सभाएँ हुई हैं।

डॉ० अंबेडकर : आर्थिक एवं सामाजिक न्याय के प्रणेता

भारतीय अर्थशास्त्री, न्यायवादी, राजनेता, लेखक, दार्शनिक और सामाज सुधारक, भीमराव अम्बेडकर को बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। वे राष्ट्र पिता के रूप में भी लोकप्रिय है। डॉ० भीमराव रामजी अम्बेडकर को हमारे देश में एक महान व्यक्तित्व और नायक के रुप में माना जाता है साथी ही वे लाखों लोगों के लिए वो प्रेरणा स्रोत रहे हैं। बचपन में छुआछूत का शिकार होने के कारण उनके जीवन की धारा पूरी तरह से परिवर्तित हो गयी। जिसने उन्हें उस समय का उच्चतम शिक्षित भारतीय नागरिक बनने के लिए प्रेरित किया। बाबा साहेब ने भारतीय संविधान के निर्माण में भी अपना अहम योगदान दिया। उन्होंने पिछड़े वर्गों के लोगों को न्याय, समानता और अधिकार दिलाने के लिए अपने जीवन को देश के प्रति समर्पित कर दिया। उनका प्रयास जाति प्रतिबंधों और अस्पृश्यता जैसे सामाजिक बुराइयों को खत्म करने में उल्लेखनीय है।

डॉ० अंबेडकर ने समाज में व्याप्त जाति-विभेद, अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। एक समय था जब अस्पृश्यता के चलते समाज का अधिकांश भाग पशुवत जीवन जी रहा था। ऐसे मूक एवं गूंगे समाज का नेतृत्व करना काफी जोखिम भरा कार्य था, लेकिन इस कार्य को भी उन्होंने अपनी विद्वता से किया। डॉ० अंबेडकर ने भारतीयों को यह सिद्ध कर दिखा दिया कि समाज में जितनी भी कुरीतियां हो रही है उनका मूल कारण मनुस्मृति और इसी प्रकार के ग्रंथ हैं। एक ओर डॉक्टर अंबेडकर दलितों, शोषितों एवं नारी की समस्या को उजागर कर रहे थे तो दूसरी ओर महात्मा गांधी सभी सहित सभी सवर्ण हिंदू अछूतों की समस्या को हिंदू समाज की आंतरिक समस्या बता रहे थे। वे देश के सामने अछूतों के मुद्दों को स्पष्ट मुद्दा नहीं बनने दे रहे थे। ऐसे समाज को अधिकार दिलाने का काम डॉ० अंबेडकर ने किया।

उन्होंने समस्त समाज को दिखा दिया कि सामाजिक न्याय की लड़ाई किस प्रकार लड़ी जाती है। उन्हें अपमान के अलावा कोई सुख नहीं मिला, लेकिन उस अपमान के जहर को भी पीकर निरंतर शिक्षा ग्रहण करते रहे और अपने परिश्रम के बल पर इतना आगे बढ़ गए कि करोड़ों लोगों के हितों की रक्षा कर पाने में समर्थ हुए। हिंदू जाति-पाति के कारण न जाने कितने बच्चों का जीवन अंधकार में डूबता चला जा रहा था, लेकिन डॉ० अंबेडकर ऐसे सुधारक बने जो ना केवल अपना बल्कि करोड़ों दलित भाइयों के भाग्य के विधाता बन गए।

डॉ० अंबेडकर ने इस बात को सदैव दुहराया कि उनके ऊपर गौतम बुद्ध, कबीरदास और ज्योतिबा फुले का प्रभाव रहा। कबीर ने उन्हें भक्ति मार्ग दिखलाया तो ज्योतिबा फुले से उन्हें संघर्ष की प्रेरणा मिली। बुद्ध ने उन्हें मानसिक व कायिक शांति का आदेश दिया। उन्हीं के आदर्श पर चलकर उन्होंने सामूहिक धर्म परिवर्तन का काम किया। उनके आदर्श का ही अनुकरण करके दलित उद्धार का कार्य किया जा सकता है। वे अमेरिका के चौदहवें संविधान संशोधन से काफी प्रसन्न हुए थे जिसके द्वारा वहां के काले नीग्रो को स्वाधीनता के अधिकार मिले थे। वे अपने छात्र जीवन के अमेरिकी प्रवास में नीग्रो आंदोलनों को गहराई और निकट से देखे। उन्हें अपने देश में अछूतों के साथ वैसे ही समस्या महसूस हुई। इसलिए उन्हें लगा कि पश्चिम का लोकतंत्र, समानता और स्वाधीनता का सिद्धांत ही हमारे देश के अछूतों का उद्धार कर सकता है। उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में दलित समाज के उत्थान के लिए जो संग्राम किया, उसके जो उपाय बताए उसके लिए उनके मन पर छात्र जीवन में अमेरिकी अंग्रेजी समाज की अमिट छाप का विशेष योगदान था। उन्होंने वहां के लोकतंत्र तथा संवैधानिक तंत्र का गहन अध्ययन किया और उसे भारतीय परिवेश में उतारने की जबरदस्त कोशिश की। डॉ० अंबेडकर ने लिखा है –

मेरे स्कूल में मराठा स्त्री नौकरी करती थी। वह अशिक्षित होते हुए भी छुआछूत को पूरी तरह मानती थी। वह मुझे स्पर्श करने से परहेज करती थी। मुझे एक दिन प्यास लगी पर मुझे पानी का चापाकल छूने की मनाही थी। मैंने अध्यापक से अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने चपरासी को आदेश दिया तब उसने नल खोला और मुझे पानी पीने को मिला अन्यथा मेरी प्यास घर जाकर ही बुझती।“

डॉ० अंबेडकर ने अपने संघर्षों के बल पर दलित शोषित समाज को अधिकार दिलाने का कार्य जरूर किया, लेकिन पूर्ण अधिकार मिल गया हो इसका दावा नहीं किया जा सकता। आधुनिक इतिहास में पहली बार डॉक्टर अंबेडकर के प्रयासों से ही अस्पृश्य अपने अधिकार की लड़ाई स्वयं लड़ने के लिए तैयार हुए। ऐसा विद्रोह करने का विचार उनके मन में इसलिए उपजा क्योंकि वे जीवनपर्यंत सवर्णों के अत्याचार का शिकार होते रहे। उन्होंने यह निश्चय किया कि वे जीवन भर दलितों अर्थात अपने वर्ग के लोगों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे। एक समाजशास्त्री के रूप में उन्हें देखा जाए तो उन्होंने दलितों के अतिरिक्त समाज में नारी वर्ग की जो दुर्दशा हुई उसका भली-भांति विवेचन किया। एक ओर हिंदू धर्म ग्रंथों में नारी की स्थिति को पवित्र माना गया, तो दूसरी ओर डॉ ० अंबेडकर ने नारी की सामान्य दशा गिरने के प्रमाण दिए। धर्मग्रंथों के बंधन नारी के ऊपर इतना प्रभाव जमाए हुए थे कि उन्हें शिक्षा दीक्षा की सुविधाएं भी प्राप्त नहीं हो सकती थीं। उन्हें गृह कार्य संचालन तक ही सीमित रखा गया था। धार्मिक संस्कारों के प्रभाव से स्त्रियां पूर्णरूपेण स्वतंत्र नहीं हो पा रही थीं। इन सब का मूल कारण डॉ० अंबेडकर स्त्रियों का निरक्षर होना मान रहे थे।

डॉ० अंबेडकर ने समाज में समानता लाने के लिए जिस शस्त्र का सर्वप्रथम सहारा लिया वह “शिक्षा” थी। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा पर उन्होंने काफी बल दिया। उनका मानना था कि जिसकी बुद्धि गुलाम है वह शिक्षा के माध्यम से ही इस गुलामी से निकल सकता है। वह सभी प्रकार के बलों में शिक्षा को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। डॉ० अंबेडकर का विचार था कि श्रेष्ठ शिक्षा वही है जो समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का पाठ पढ़ाती हो। डॉ० अंबेडकर विशेषकर युवा वर्ग से आग्रहपूर्वक कह रहे थे कि शिक्षा में दूसरों से किसी भी मायने में पीछे नहीं रहें। शिक्षित होकर ही कोई व्यक्ति सशक्त हो सकता है और अपनी समस्या को किसी भी जगह उठा सकता है।

डॉ० अंबेडकर ने अपनी सूझबूझ एवं क्षमता के माध्यम से ही दलितों एवं शोषितों की समस्या को देश का मुख्य मुद्दा बनाया। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों को प्रांत से लेकर अखिल भारतीय स्तर तक उजागर किया। जिन अछूत व दलितों को आज तक मनुष्य कहने तक में भी लोगों को एतराज था, उस लड़ाई को डॉ० अंबेडकर ने राजनीतिक स्तर पर लड़ने की तैयारी कर दी। अछूतों की समस्याओं के समाधान हेतु डॉ० अंबेडकर ने राजनीतिक दृष्टिकोण का प्रयोग किया। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा की वे वर्तमान सामाजिक ढांचे को बदलने के लिए राजनीतिक शक्ति को अपने हाथ में लेना चाहते थे।


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