पर्यावरण प्रबंध की खोज …

brown arch gate near green grass field

अतीत से ही पर्यावरण का महत्व रहा है। हजारों वर्षों से पर्यावरण प्रबंध आचरणपरक होने के कारण जीवन शैली का अंग बन गया था। फलत: सभी कार्य ढंग से निष्पादित किए जाते थे। परिणामत: पर्यावरण के अवनयन की कोई समस्या नहीं थी। मानव संस्कृति के रिश्ते मधुर थे और मानव की छोटी-छोटी भूलें प्रकृति स्वयं नियंत्रित कर लेती थी। मनुष्य तथा पर्यावरण में गहरा संबंध रहा है। पर्यावरण में ही मनुष्य पलता है तथा विकसित होता है। मनुष्य जन्म से ही पर्यावरण के तत्वों से परिचित है। लेकिन वर्तमान शताब्दी में आधुनिक विकास के नाम पर आया बदलावों ने पर्यावरणीय संकटों को जन्म दिया है।

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आज आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए ऐसी तकनीकों का प्रयोग किया जाने लगा है जिससे पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पर्यावरणीय संकट के कारण वैश्विक स्तर पर पर्यावरण प्रबंधन की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इस संदर्भ में यह बताना समीचीन है कि प्रबंध पर्यावरण का नहीं बल्कि मानव की अनुचित और अविवेकपूर्ण अनुकर्मों का होना चाहिए जिसके कारण पर्यावरण की गुणवत्ता का ह्रास हुआ है। लेकिन विकसित समाज अपनी गलती को छुपाने के लिए अपने कार्यों का प्रबंध ना करके पर्यावरण का प्रबंध करने की बात कह रहा है। अतएव पर्यावरण प्रबंध उन कार्यों और घटनाओं का नियमन है, जिसके कारण पर्यावरण का अवनयन हो रहा है। इस प्रकार प्रबंध की अवधारणा मानव समाज के अनुचित कार्यों के नियंत्रण, वैकल्पिक मार्गों की खोज और प्रकृति के तत्वों के संरक्षण-परीक्षण में निहित है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सुनियोजित और सुविधचारित कार्यक्रम की आवश्यकता है, ताकि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जा सकें। ऐसा ना होने से स्थिति भयावह हो सकती है, क्योंकि 1992 का रियो-डी-जेनेरो का पृथ्वी बचाओ सम्मेलन इसका प्रमाण है। विकसित समाज अब भी खुले दिमाग से अपनी गलती मानने के लिए तैयार नहीं है।

अतः पर्यावरण प्रबंध की अवधारणा, ह्रासमान पर्यावरण के कारणों की पहचान, उनका नियमन एवं पिछले अनुभवों के आधार पर भविष्य की संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य में अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक उपायों का निर्माण है, ताकि पर्यावरण की गुणवत्ता बहाल कर जीवधारियों के लिए उपस्थित संकट को दूर किया जा सके। प्रबंध जीवन की गुणवत्ता सुधारने और उसे सतत बनाए रखने की कार्य योजना है। अल्पकालिक प्रबंध मात्र वर्तमान कष्टों के निवारण से संबंधित होता है, जैसे प्रदूषण नियंत्रण लेकिन दीर्घकालिक योजना भूत, वर्तमान और भविष्य को समाहित कर एक सुविचारित ढंग से संपूर्ण जैव जगत की कार्य योजना होती है। पर्यावरण प्रबंध के दो आधारी पक्ष होते हैं- मानव समाज के बहुमुखी विकास के लिए विभिन्न विकल्पों पर विचार और अनुकूलतम विधि का चुनाव ताकि विकास और जीवन की गुणवत्ता में सामंजस्य बनाए रखा जा सके तथा दूसरा मानव-प्रकृति के रिश्ते में संतुलन, जो जीव मंडल की कुशलता का आधार है। जीवन को लंबी अवधि तक सुखमय बनाए रखने के लिए ससामाजिक-आर्थिक नीतियों का निर्धारण और जीवन पद्धति के मूल्यों को प्रकृतिपरक बनाना प्रबंध का मुख्य लक्ष्य है। इस प्रकार प्रबंध द्वारा जहां पर्यावरणीय विकृतियों, यथा-प्रदूषण, अनुपयुक्त तकनीक, सामाजिक व्यवस्था आदि को कम करने या नियंत्रित करने की योजना बनाई जाती है, वहीं भविष्यगत सुव्यवस्था के लिए पर्यावरण मूल्यांकन, वैज्ञानिक-बौद्धिक समायोजन, राजनीतिक-प्रशासनिक सहयोग, सामाजिक नवचेतना हेतु शिक्षा प्रशिक्षण व्यवस्था और उपयुक्त तकनीकी विकास से संसाधनों का संतुलित उपयोग एवं संरक्षण किया जाता है। इस प्रकार पर्यावरण प्रबंध एक बहुआयामी जटिल प्रक्रिया है जो मानवीय क्रियाकलापों के नियम से लेकर पर्यावरण के तत्वों की स्वाभाविक गुणवत्ता की बहाली तक विस्तृत है।

black ship on body of water screenshot
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पर्यावरण प्रबंध को रेखांकित करते हुए रियोरडार ने लिखा है कि “प्रबंध का तात्पर्य होता है विभिन्न प्रस्तावों में से उपर्युक्त प्रस्ताव का विवेकपूर्ण चयन ताकि वह निर्धारित तथा इच्छित उद्देश्यों की पूर्ति कर सके। प्रबंध में अल्पकालिक और दीर्घकालिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक या अनेक नीतियां अपनाई जाती हैं, परंतु दीर्घकालिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त व्यवस्था अपेक्षित होती है।
विश्व विकास रिपोर्ट में पर्यावरण प्रबंध और विकास के लिए दो आधार बताए गए हैं-

  1. ऐसी नीति का निर्धारण जो उत्पादन और पर्यावरण में धनात्मक सहसंबंध स्थापित कर अनुचित और असफल नीतियों में सुधार, संसाधन एवं तकनीक में संतुलन तथा लाभदायक आय में विकास का मार्ग प्रशस्त करें।
  2. लक्ष्य निर्धारित नीति जो पर्यावरण के विशिष्ट पक्षों से संबंधित समस्याओं, व्यवस्थाओं और मूल्यांकन में पर्यावरणीय आधारों पर प्रबंध का आधार बन सकें।
    अतः पर्यावरण प्रबंध को कारगर बनाने के लिए नियोजित ढंग से प्राथमिकताओं को तय कर कार्य योजना बनाई जाती है ताकि समय और साधनों के दुरुपयोग को कम किया जाए और प्रगतिशील टिकाऊ समाज के लक्ष्य को प्राप्त किया जाए। इस प्रकार नियोजन आधारित कार्य विधि से जहां वर्तमान संकटों से उबरने में मदद मिलती है वहीं विकास की गति बनी रहती है। इस लक्ष्य को मंजिल तक पहुंचाने में विकसित और विकासशील देशों का सहयोग अपेक्षित है क्योंकि पर्यावरण प्रबंध और नियोजन में दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है।
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पर्यावरण की विकट स्थिति उन क्षेत्रों में अधिक है, जहां सामाजिक आर्थिक विकास और पर्यावरण से संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई है। इससे परिस्थितिकी समस्या जटिल हो गई । इस संघर्ष से छुटकारा या इसको यथासंभव कम करना पर्यावरण प्रबंध की सामाजिक आवश्यकता है। अपने आर्थिक क्रियाकलापों में लिप्त मानव समाज एक विशिष्ट जीवन पद्धति का अभ्यस्त हो गया है। प्रकृति से समायोजन करने में तकनीकी उपलब्धि एवं व्यवहारिक मान्यताएं सबसे अधिक अवरोधक हैं। फलत: परिस्थितिकी के असंतुलन से बढ़ती कठिनाइयां यह सोचने के लिए बाध्य करती हैं कि पर्यावरण को सुधारने और संरक्षित करने का उपाय ढूंढा जाए।

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यह सर्वविदित है कि विकास की एक सीमा होती है तथा अतिरेक संकट का कारण। जनसंख्या की वृद्धि की एक नैसर्गिक प्रक्रिया है, किंतु जब जनसंख्या विस्फोट की स्थिति आ जाती है तब जनसंख्या वृद्धि एक कठिन समस्या बन जाती है। जनसंख्या की वृद्धि के साथ भोजन के उत्पादन में भी वृद्धि आवश्यक हो जाती है। लेकिन जिस गति से जनसंख्या बढ़ती है भोजन का उत्पादन नहीं बढ़ पाता। वैज्ञानिक विकास मानव जीवन को सुरक्षित बनाता जा रहा है जिससे मृत्यु दर तो घटती है, किंतु जन्म दर । औद्योगिक उत्पादन करने वाला मानव समाज भोज्य सामग्री की तुलना में अन्य वस्तुओं का आर्थिक उत्पादन करने लगता है। फलत: अपने भोजन की आपूर्ति अन्य क्षेत्रों से आयात करके पूरा करता है। लेकिन जब कृषि प्रधान देश भी औद्योगिक विकास में संपन्न हो जाते हैं तो भोजन की समस्या उठ खड़ी होती है। परिणामत: समस्या समाधान के लिए गहन कृषि को बढ़ावा देना पड़ता है। इस प्रकार उन्नत कृषि से पर्यावरणीय संसाधनों जैसे मृदा, जल आदि पर भार बढ़ता है, जिससे मानव प्रकृति का रिश्ता असंतुलित होता है। मनुष्य नई-नई तकनीकों से प्रकृति के कुप्रभाव को दबाता है। जैसे कीटनाशक दवा का प्रयोग तथा कृत्रिम साधनों से उत्पादकता में वृद्धि हेतु उर्वरक एवं जल का प्रयोग करता । यह प्रभाव स्थाई होता है तथा प्रकृति के स्वनियामक स्वरूप में व्यवधान डालता है। परिणामस्वरूप पर्यावरण की समस्या उत्पन्न होती है जिसके निदान के लिए पर्यावरण प्रबंध करना पड़ता है। प्रकृति के साथ सब व्यवहार ही पर्यावरण प्रबंध का मूल उद्देश्य है।

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पर्यावरण प्रबंध के प्रति समन्दित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, क्योंकि प्रकृति के तत्व अति जटिल और संवेदनशील होते हैं। पर्यावरण प्रबंधन मात्र वैज्ञानिक या इंजीनियर के वश में नहीं है, क्योंकि पर्यावरण असंतुलन से उभरी समस्याएं अति व्यापक हैं जिनके केंद्र में कहीं-न-कहीं मनुष्य की भूमिका है। अतः यह भौतिक विद्वानों और मानव विद्वानों के समवेत प्रयास की विषय वस्तु है। इसीलिए भूगोलवेत्ता की भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दोनों विद्याओं का उपयोग करता है। व्यापक अर्थ में सामाजिक पर्यावरण का प्रबंध भी इसके अंतर्गत आता है। समाज में भेदभाव, तनाव, दंगा, युद्ध तथा धर्मोन्माद आदि क्रियाएं कहीं-न-कहीं पर्यावरण से जुड़ी हैं। अधिकांश युद्ध प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के लिए होते हैं। अतः पर्यावरण प्रबंध में तकनीकी एवं वैज्ञानिक पक्ष एक ओर है और तो मानवीय पक्ष दूसरी ओर। पर्यावरण का महत्व मनुष्य के लिए इसलिए है क्योंकि पृथ्वी उसका निवास्थ है। अतः मनुष्य को आधार मानकर पर्यावरण की रणनीति बनाई जानी चाहिए।

sunflower during sunset
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मनुष्य एवं वातावरण की अंतर प्रक्रिया के प्रथम चरण में मनुष्य के प्राथमिक क्रियाकलापों में पर्यावरण को परिवर्तित करने के लिए उत्प्रेरित किया होगा। कृषि एवं आधिवासों के लिए इस क्रम में धरा को वनस्पति विहीन कर नए भू दृश्यों की रचना का प्रारंभ किया गया। कालांतर में बड़े पैमाने पर खेतों और बागों की रचना, व्यवसायिक कृषि, सिंचाई के साधन, उत्खनन आदि के विकास से पर्यावरण परिवर्तन की गति तीव्र हो गयी। प्रारंभिक मानव अधिवासों की तुलना में सामाजिक उन्नयन के साथ अधिवासों के रूप एवं उनके प्रभावों में अंतर आ गया। उद्योग और नगरीकरण से अनेक प्राकृतिक तत्वों में व्यापक परिवर्तन आया, लेकिन इनकी अनदेखी की गयी।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मनुष्य भी पर्यावरण के परिवर्तनों से प्रभावित हुआ। उदाहरण स्वरुप जलवायु परिवर्तन से आव्रजन का प्रारंभ हुआ था। अतिशीत एवं अति उष्ण जलवायु से जनसंख्या के विनाश होने के उदाहरण भी मिलते हैं। इसी तरह महामारियों जैसे-हैजा, प्लेग, मलेरिया, चेचक, आंत्रशोथ आदि से भी मनुष्य प्रभावित हुआ था। प्राकृतिक संघटकों के कारण जनसंख्या का या तो विनाश हुआ या आव्रजन के लिए बाध्य होना पड़ा। अतः मानव समाज व प्राकृतिक परिवर्तन से छुटकारा न पा सका। हालांकि वह निरंतर प्रयास करता रहा है।

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वर्तमान समय में मानवजन, पर्यावरणीय परिवर्तनों का प्रभाव अधिक मुखरित हुआ है। भारत में नर्मदा घाटी योजना, टिहरी बांध योजना, भाखड़ा नांगल बांध योजना आदि से उत्पन्न पर्यावरणीय परिवर्तनों से जनसंख्या विस्थापन, संपत्ति के अधिकार का हनन, सामाजिक तनाव आदि का जन्म हुआ है। इस तरह पर्यावरणीय परिवर्तन, सामाजिक परिवर्तनों के प्रतिफल एवं कारण दोनों बन जाते हैं। इस दृष्टिकोण से पर्यावरण का अध्ययन, प्रबोधन पर्यावरणीय नीतियां एवं पर्यावरणीय शिक्षा का महत्व निर्विवाद है।

पर्यावरण असंतुलन से ही पर्यावरण प्रबंधन की आवश्यकता जन्म लेती है। भूगोल में पर्यावरणीय प्रक्रियाओं और मनुष्य-पर्यावरण संबंधों के अध्ययन की सुगठित विधियां हैं। अतएव पर्यावरण प्रबंध के भौगोलिक पक्ष को समझने के लिए उसका विधिक ज्ञान आवश्यक है जो निम्न है-

  1. वृहदस्तरीय पक्ष – जैसे ओजोन परत का ह्रास, पृथ्वी के विश्वव्यापी तापमान में वृद्धि, जैव प्रजातियों का लोप, जैव विविधता में कमी तथा जैव वंशानुगत में कृत्रिम परिवर्तन आदि।
  2. लघुस्तरीय पक्ष – जैसे वन विनाश, मरुस्थलीकरण, भूमिक्षरण, जल-थल में ह्रास, खनिजों का ह्रास, वायु, मृदा, जल एवं धरातल का प्रदूषण, मानव स्वास्थ्य में ह्रास, धार्मिक जातीय उन्माद, राजनीतिक प्रतिशोध आदि।
  3. संकटग्रस्त क्षेत्रों की पहचान – इन आकलनों एवं अध्ययनों के आधार पर ध्रुवीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कार्य योजनाएं बनाई जा सकती हैं, जो पर्यावरण प्रबंध को मूत्र्तरूप देंगी। यह भी उल्लेखनीय है कि इन्हें दो दृष्टिकोण से लागू करना होगा यथा

क) जहां परिस्थितिकी का संकट यथा-प्रदूषण, प्राकृतिक प्रकोप और सांस्कृतिक समस्याएं उपस्थित हो गयी हैं और मानव जीवन की गुणवत्ता ह्रासमान होने लगी है, वहां इनसे निपटने के उपायों का त्वरित क्रियान्वयन आवश्यक होता । ऐसा न करने पर स्थिति नाजुक हो सकती है, जिसकी कीमत चुकाना मनुष्य के लिए असंभव होगा उदाहरणस्वरूप क्लोरो फ्लोरो कार्बन के कारण ओजोन परत का क्षरण या कार्बन डाइऑक्साइड के कारण हरित गृह प्रभाव की गुणवत्ता का ह्रास, ऐसे ही संकट हैं, जिस पर त्वरित निर्णय आवश्यक होता है।

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ख) रक्षात्मक कार्य योजना के अंतर्गत उन क्षेत्रों को पर्यावरणीय कठिनाइयों से बचाया जाता है जहां यह प्रारंभिक अवस्था में हैं या ऐसी कठिनाइयों के पनपने की संभावनाएं हैं। ऐसे क्षेत्रों में मामूली व्यवस्था से मानवता की रक्षा की जा सकती है। भारत का विस्तृत भाग अभी पर्यावरणीय कठिनाइयों से मुक्त है, अतः यहां के लिए रक्षात्मक कार्य योजना लाभकारी प्रमाणित होगी। इसी तरह परिवहन तकनीक में सुधार, उपवन, नगरों की रचना, प्रदूषण रहित प्रौद्योगिकी का विकास, जैविक विविधता का संरक्षण आदि रक्षात्मक उपाय हैं।
जीवन की गुणवत्ता परिस्थितिक तंत्र की सुव्यवस्था में निहित है। अतः परिस्थितिक तंत्र के प्रबंध के अंतर्गत दो आधारित पक्षों की मुख्य रूप से सम्मिलित किया गया जाता है- क) मानवीय अनुक्रियाएं, विशेषकर आर्थिक सामाजिक विकास से संबंधित अनुक्रियाएं और ख) पर्यावरणीय अव्यवस्था को संतुलित परिस्थितिकी के लिए आवश्यक है। पर्यावरणीय गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए आवश्यक उपाय या प्रबंधन एक आधारों तथा रंगों से करना पड़ता है, जैसे- प्रदूषण नियंत्रण, संसाधन विदोहन की सुव्यवस्था, उत्पादन तकनीक में सुधार, टिकाऊ अर्थव्यवस्था का विकास, अपशिष्टों के निष्पादन की उचित व्यवस्था, भविष्यगत संकटों को झेलने की व्यवस्था, पर्यावरण संरक्षण की कानूनी व्यवस्था, पर्यावरणीय जानकारियों को जनमानस तक पहुंचाने तथा पर्यावरणीय चेतना को आचरणपरक बनाने के उपाय एवं पर्यावरण अनुरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवं विश्व स्तरीय कार्यक्रम आदि।

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पर्यावरण प्रबंध और नियोजन का क्षेत्रीय आयाम एक महत्वपूर्ण उपागम है। पर्यावरण की व्यापकता और विशिष्टता को देखते हुए उसके प्रबंध को बहुस्तरीय बनाना सार्थक प्रयास है। पर्यावरणीय समस्याएं कुछ स्थानीय, कुछ क्षेत्रीय, कुछ राष्ट्रीय तथा कुछ विश्वव्यापी होती हैं। अतः ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए अनेक स्तरों पर प्रयास आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार पर्यावरण प्रबंध के लिए चार स्तरों पर कार्य योजना का प्रबंध किया जाता है जो निम्न हैं-

  1. स्थानीय प्रबंध- पर्यावरण से संबंधित अनेक समस्याएं स्थानीय महत्व की होती हैं जिनका निदान स्थानीय प्रबंध से संभव है‌। महानगरों में व्याप्त प्रदूषण की समस्या से निदान के लिए स्थानीय प्रबंध उपयोगी होता है। इसी प्रकार किसी प्रदेश के गन्ना मिलों या अन्य मिलों के अपशिष्टों से उत्पन्न समस्याएं स्थानीय कहीं जाएंगी।
  2. क्षेत्रीय प्रबंध- क्षेत्र विशेष की पर्यावरणीय समस्या क्षेत्रीय आधार पर सुलझाए जाती है, जैसे चंबल घाटी में मृदा छरण की समस्या, ब्रह्मपुत्र की बाढ़ समस्या या कोसी की बाढ़ समस्या नर्मदा घाटी और टिहरी बांध से संबंधित पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान क्षेत्रीय स्तर पर ही संभव है।
  3. राष्ट्रीय प्रबंध- राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं के लिए वृहद प्रबंधन की आवश्यकता होती है। वन संवर्धन और संरक्षण, जल प्रबंध, ऊर्जा संरक्षण जैसी समस्या को राष्ट्रीय नीति के अंतर्गत सुलझाया जा सकता है। जनसंख्या नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय नीति बनाना आवश्यक होता है। गंगा सफाई परियोजना और वन्य जीव संरक्षण योजना भी राष्ट्रीय प्रबंध से ही संबंधित है।
  4. अंतर्राष्ट्रीय प्रबंध- विश्वव्यापी समस्याओं को सुलझाने के लिए विश्व जनमत बनाना आवश्यक होता है। अंतरिक्ष कार्यक्रम से उत्पन्न वायुमंडलीय प्रदूषण की समस्या, आधुनिक युद्ध से विकिरण की समस्या, जलवायविक व्यक्ति क्रम की समस्या, ओजोन परत के क्षरण की समस्या, हरित गृह प्रभाव के अवक्रमण की समस्या, जैविक विविधता विनाश आदि समस्याओं को बिना अंतरराष्ट्रीय सहयोग और प्रबंध से सुलझाना कठिन होगा।
    अतएव स्पष्ट है कि पर्यावरण प्रबंध और नियोजन कार्यक्रम परिस्थितिकी की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए किए गए प्रयास हैं, जो वर्तमान तथा भविष्य की समस्याओं से निजात दिलाते हैं।
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पर्यावरण प्रबंध के लिए निम्न महत्वपूर्ण बातों पर आज ध्यान देने की आवश्यकता है-

  • पर्यावरण बोध एवं जनचेतना- पर्यावरण बोध की प्राचीन परंपरा, पर्यावरण बोध में ह्रास, पर्यावरण बोध के उपाय, आधुनिक युग में जनचेतना के स्रोत और विधि तंत्र।
  • पर्यावरणीय शिक्षा, प्रशिक्षण एवं शोध- पर्यावरणीय पक्षों का विभिन्न स्तरों पर शिक्षा पाठ्यक्रम में प्रवेश, आचारपरक शिक्षा का प्रसार, व्यवसायिक आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण, पर्यावरणीय शोध कार्य।
  • उत्पादन, तकनीक और संसाधन प्रबंध- उत्पादन नीति का परिवर्धन और टिकाऊ विधि का अनुसरण, उत्पादन की सीमा और गुणवत्ता का निर्धारण, उचित तकनीक का विकास तथा अनुचित तकनीकों में सुधार, संसाधनों का व्यवस्थित उपयोग एवं संसाधन संरक्षण नीति का अनुसरण।
  • विज्ञान और बौद्धिक कुशलता का विकास- विज्ञान और अध्यात्म का समंजन, वैज्ञानिक उपलब्धियों का परिस्थितिकीय मूल्यांकन, ज्ञान और विज्ञान की सहभागिता का विकास, बौद्धिक संपदा का बेहतर प्रयोग।
  • पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन- वर्तमान पर्यावरणीय परिस्थितियों का मूल्यांकन, घातक प्रभाव को जन्म देने वाली प्रौद्योगिकी और उत्पादन क्रिया विधि का मूल्यांकन तथा नियमन, भविष्यगत प्रौद्योगिकी की रूप रेखा का निर्धारण।
  • पर्यावरण अवनयन तथा प्रदूषण नियंत्रण- अवक्रमिक पर्यावरण की बहाली, पर्यावरण प्रदूषण का नियंत्रण, सामाजिक विकृतियों का नियंत्रण।
  • राजनीतिक-प्रशासनिक सहयोग- पर्यावरणीय समस्याओं के अनुरूप राजनीतिक-प्रशासनिक सहयोग की स्थापना, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में सहयोग का विस्तार तथा सामूहिक कार्य योजना का निर्धारण।
  • सांस्कृतिक आयामों का नियमन- जनवृद्धि का नियमन, सामाजिक विषमता में सुधार, आवासीय स्वरूप का नियमन, जीवन पद्धति के मूल्यों में नवचेतना का संचार, सामाजिक सद्भावना का विकास।
  • आपदा प्रबंध- प्राकृतिक और मानवीय आपदाओं के समय विविध प्रकार की सहायता न्यूनतम अवधि में उपलब्ध कराना ताकि जान माल की यथासंभव रक्षा हो सके।
flock of yellow baby ducks in grass
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आज कोरोना काल में पर्यावरण के प्रति जनचेतना कि अपरिहार्य आवश्यकता है। पर्यावरण के प्रति जनचेतना भावी पीढ़ियों की सुरक्षा है। आज आवश्यकता है कि पर्यावरण संरक्षण की नीति को अपनाया जाए। चाणक्य के अर्थशास्त्र में प्रकृति के समस्त मूल तत्वों की शुद्धता बनाए रखने के लिए स्पष्ट निर्देश एवं नियम दिए हैं। पर्यावरण के सभी कारक परस्पर एक दूसरे से संबंध हैं। उनमें पारस्परिक निर्भरता है। किसी एक कारक का प्रभाव समस्त पर्यावरण पर पड़ता है। प्रकृति के बहुत से संसाधन सीमित हैं। अतः युक्ति युक्ति प्रयोग होना चाहिए। संसाधनों का शोषण सभी के लिए हानिकारक है। इसलिए आदि युग से हम अपने धार्मिक संस्कारों की वजह से प्रकृति के कारकों के प्रति संवेदनशील रहे हैं।

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अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में लिखा है – “हे पृथ्वी मां, मैं तुमसे उतना ही लूंगा, जिसे तू पुनः पैदा कर सके। तेरे मरुस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूंगा।“ यह संस्कार युगों से भारतीय मानस पर रहे, इसलिए पर्यावरण लंबे समय तक संरक्षित रहा। भारत में पर्यावरण चेतना के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं – चिपको आंदोलन, एप्पिको आंदोलन, शांत घाटी आंदोलन एवं नर्मदा बचाओ आंदोलन। सभी कार्य सराहनीय हैं। पर्यावरण ह्रास को रोकना आवश्यक हो गया है। पर्यावरण प्रबंध मानव जीवन को बचाने के लिए आवश्यक है। जन आंदोलन इस कार्य के लिए रामबाण है। शहर गांव के लोगों के बीच प्रदूषण के बारे में जानकारी देना होगा, साथ ही उनके मन में पर्यावरण जन आंदोलन के लिए प्रेरणा उत्पन्न करना होगा। पर्यावरण के प्रति उत्तरदायित्व जगाने एवं चेतना को व्यापक बनाने की आवश्यकता है।