
प्रबोधिनी एकादशी पर सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर ही भगवान विष्णु को चार महीने की निद्रा के बाद जगाते हैं। भजन, कीर्तन, शंख और घंटानाद सहित मंत्र बोलते हुए भगवान विष्णु को निद्रा से जगाया जाता है, फिर उनकी पूजा होती है। भगवान के जागने के बाद सभी मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं। शाम को घरों और मंदिरों में दीये जलाए जाते हैं और गोधुलि वेला यानी सूर्यास्त के वक्त भगवान शालग्राम और तुलसी का विवाह करवाया जाता है।इस दिन तुलसी के पौधे का श्रृंगार दुल्हन की तरह किया गया है, ऐसी मान्यता है कि तुलसी विवाह करवाने से भक्तों को भगवान विष्णु का आशीर्वाद मिलता है। कहा जाता है कि तुलसी विवाह कराने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। तुलसी (पौधा) पूर्व जन्म में एक लड़की थी। उसका नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था। बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी। बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा करती थी। जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा करती थी। एक बार देवताओं व दानवों में युद्ध हुआ।
जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है। आप जब तक युद्ध में रहेंगे मैं पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिए अनुष्ठान करुंगी। जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नहीं छोडूंगी। जलंधर तो युद्ध में चले गए। वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गई। उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु के पास गए। सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि -वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता। लेकिन देवताओं के आग्रह करने और दगत कल्याण के लिए जालंधर को हराने के लिए भगवान विष्णु ने वृंदा के साथ छल किया था। इसके बाद वृंदा ने विष्णु जी को श्राप देकर पत्थर का बना दिया था, लेकिन लक्ष्मी माता की विनती के बाद उन्हें वापस सही करके सती हो गई थीं। उनकी राख से ही तुलसी के पौधे का जन्म हुआ और उनके साथ शालिग्राम के विवाह का चलन शुरू हुआ।
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