जयंती पर विशेष : वर्तमान समय व समाज में बाबा साहेब और उनके विचारों की प्रासंगिकता

डॉ० भीमराव अंबेडकर की जयंती पर विशेष आलेख
डॉ० (प्रो०) शक्ति कुमार एवं डॉ० (प्रो०) तपन कुमार शांडिल्य की कलम से …

डॉ० (प्रो०) शक्ति कुमार
अध्यक्ष
अर्थशास्त्र, जे० एन० यू०, नई दिल्ली
डॉ० (प्रो०) तपन कुमार शांडिल्य
पूर्व कुलपति, नालंदा खुला विश्वविद्यालय, पटना 
प्राचार्य, कॉलेज ऑफ कॉमर्स, आर्ट्स एंड साइंस, पटना

 

 

 

 

 

 

 

 

 

डॉ० अंबेडकर अपने जीवन काल में,विशेष रूप से सामाजिक एवं शैक्षणिक समता से वंचित जनसमूह, जिसे शोषित वर्ग कहा जा सकता है, के लिए चेतना, अधिकार एवं उनके सशक्तिकरण के लिए काम किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआ-छुत को मिटाने का प्रयास किया और संविधान में इसे उल्लेखित कर एक इतिहास बनाया। डॉ० आंबेडकर आज हमारे वर्तमान भारत एवं संपूर्ण विश्व के लिए प्रासंगिक हैं। डॉ० आंबेडकर आधुनिक भारत के उन थोड़े से नेताओं में से एक हैं जिन्होंने चिंतन और संघर्ष के द्वारा हमारे देश को हर क्षेत्र में प्रभावित किया। डॉ० अंबेडकर ने दलितों की स्थिति में परिवर्तन सफलतापूर्वक समाज की स्थापना के लिए जरूरी बताया। जाति-प्रथा, ना केवल मानव गरिमा के विरुद्ध है, बल्कि समतामूलक समाज के स्वप्न के भी विरुद्ध है। यही कारण है कि अर्थशास्त्र के अध्ययन के साथ-साथ वे जाति प्रथा के उद्गम-विकास-प्रभाव के समाजशास्त्र पर निरंतर कार्य करते रहे। सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से शोषित वर्ग को उन्होंने पढ़ने का अधिकार दिया।

अंतर्जातीय विवाह के हिमायती थे डॉ० अंबेडकर

डॉ० अंबेडकर जाति भेद, वर्ण भेद एवं अछूतपन आदि की कटुता को समाप्त करने के लिए अंतर्जातीय, अंतर्वर्णीय विवाह के हिमायती थे, धार्मिक ग्रंथों में जाति और वर्ण व्यवस्था के आधारभूत सिद्धांतों में संशोधन के हिमायती थे। जबकि गांधीजी इसके विरोधी थे।

गॉधी भी थे प्रभावित

जैसे-जैसे डॉ० अंबेडकर का समतावादी समाज के लक्ष्य को प्राप्त करने का आंदोलन तेज होता गया, गांधी के खिलाफ वैचारिक हमलों में तीव्रता आई, वैसे-वैसे ही गांधी के विचारों में भी परिवर्तन होता गया। यह गांधी द्वारा अपनी मूलभूत मान्यताओं में परिवर्तन का सुंदर उदाहरण भी है जो व्यक्ति सन् 1920 से 1944 तक जाति और वर्ण व्यवस्था का प्रबल समर्थक रहा हो सन् 1945 तक आते-आते उसका विरोधी हो गया। जब गांधी जी से यह पूछा जाता था कि बापू आपने जाति और वर्ण व्यवस्था का पहले समर्थन किया था और अब ऐसा कहते हैं तो उनका जवाब होता था कि पिछला कथन भूल जाओ मेरा वर्तमान कथन सत्य मानो। यह मेरे ‘सत्य की खोज’ का प्रयोग है। 6 मई 1945 को गांधी जी ने अपने एक सहयोगी नरहरी पारीख को लिखा कि “हमें अतिशीघ्र शूद्र और सवर्ण हिंदू के विवाह को बिना हिचक सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए।” फिर उन्होंने 9 मई 1945 को एक सामाजिक कार्यकर्ता को लिखा कि “अगर यह शादी एक ही जात-बिरादरी में हो रही है तो मुझसे आशीर्वाद मत मॉगो, मैं आशीर्वाद तभी दूंगा जब लड़की किसी और समुदाय की होगी ‌”इस प्रकार जाति-उन्मूलन के प्रश्न पर डा० अंबेडकर के सुझाव तर्क और अनुभव की दृष्टि से मजबूत थी। जिसे जीवन के अंतिम क्षणों में गांधीजी ने स्वीकार किया। जाति और वर्ण व्यवस्था के विरोधी डॉ० अंबेडकर और समर्थक गांधी के बीच लंबे समय तक चले विवाद में सच्चाई और विवेक डॉ० अंबेडकर की ओर थे।

ब्राह्मणवाद पर प्रहार

डॉ० अंबेडकर ने अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन से शिक्षा प्राप्त की थी तथा वे अमेरिकी रंग-भेद, नस्लवाद, अलगाववाद की भीतरी स्थिति से गहरा परिचय रखते थे। फ्रांसीसी राज्य-क्रांति की विचारधारा का उन पर असर पड़ा था। इसलिए समानता, बंधुता और अधिकारों के लिए लड़ने पर भी वे अपने देश की भीतरी हालत को समझते थे। अंग्रेज दिखावे के तौर पर शोषित वर्ग को भारत में गले लगाता था, बराबरी पर बैठाता था, नौकरी देता था, छुआ-छुत न मानता था। इस उदारता के पीछे छिपी नियत भी बाबा साहेब खूब समझते थे। वे बराबर समझते रहे कि अछूतों का भला ईसाई धर्म स्वीकार करने में नहीं हो सकता। उनका भला तो हिंदू समाज में व्याप्त छुआ-छुत समाप्त करते हुए समानता और न्यायपूर्ण अधिकारों को प्राप्त करने से ही हो सकता है। डॉ० अंबेडकर जोर देकर कहते हैं कि ‘यदि आप हिंदू धर्म को बचाना चाहते हो तो ब्राह्मणवाद को खत्म करो। उन्हें उपनिषदों की उस वाणी से प्यार है, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना पर आधारित है। इस तरह के विचारों के कारण कम्युनिस्ट अपने वर्ग-संघर्षवाद में गांधी की तरह डॉ० अंबेडकर का भी डटकर विरोध करते रहे। हिंदू धर्म की कुरीतियों से बेचैन बाबा साहेब की उजली भारतीयता पर गहरी आस्था है, “मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिंदू अथवा मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति,भाषा आदि की प्रतिस्पर्धी निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं चाहता हूं लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें, भारतीय के अलावा कुछ नहीं।”

बाबा साहेब डॉ० अंबेडकर का सपना था कि भारत महान, एकजुठ और सुखी-संपन्न राष्ट्र बने। वे कहते थे कि एकजुट और मजबूत राष्ट्र तभी बनेगा जब सबों को सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक आजादी मिले। उन्होंने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ों एवं महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आजादी के लिए आजीवन संघर्ष किया। राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिली पर सामाजिक आर्थिक स्वतंत्रता अभी कोसों दूर है इसके लिए डॉ० अंबेडकर ने शिक्षित बनो, संघर्ष करो एवं संगठित हो का नारा बौद्ध धर्म के बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि के आधार पर दिया। यह उनका लोकप्रिय नारा था जिसने करोड़ों दलितों, पिछड़ों में आशा और उत्साह का संचार किया। डॉ० अंबेडकर ने राजनीतिक शक्ति को मास्टर कुंजी की संज्ञा दी जिससे सभी प्रकार के ताले खोले जा सकते हैं। इसी प्रकार राजनीतिक शक्ति रूपी कुंजी से सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ताले भी खोले जा सकते हैं।इसीलिए उन्होंने अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों को संगठित होकर संघर्ष करने तथा राजसत्ता पर अधिकार करने सामाजिक-आर्थिक आजादी प्राप्त करने और जाति-पाति को समाप्त करने का आह्वान किया।उन्होंने कहा कि संघर्ष कठिन है पर सफलता आगे खड़ी है। हम बाबा साहब के आह्वानों को साकार करने का कितना प्रयास करते हैं, उसका आत्म विश्लेषण करना होगा? उनके सपने आज धीरे-धीरे साकार हो रहे हैं, पर मंजिल अभी बहुत दूर है। उसे पाने के लिए हमें बहुत कुछ करना है। उनके सपनों को पूर्णत: साकार करने की दिशा में किए गए प्रयत्न ही सामाजिक क्रांति के प्रवर्तक और युगदृष्टा डॉ० अंबेडकर के प्रति सच्ची पुष्पांजलि होगी।

1920 ई० के बाद डॉ० भीमराव अंबेडकर ने निरंतर दलित मुक्ति तथा उनके मानवाधिकारों की बहाली के लिए सशक्त आवाज उठानी शुरू की और पूरे देश का ध्यान अपने जन-आंदोलन की ओर आकृष्ट किया। महात्मा गांधी ने दलितों के उत्थान के लिए और उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोड़ने के लिए एक नई दृष्टि से काम किया। लेकिन डॉ० अंबेडकर ने शोषित एवं वंचित समाज में एक राजनैतिक चेतना पैदा की। इसी चेतना के आधार पर आज अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन-जाति एवं पिछड़ा वर्ग राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं। इनके पास जन हैं, जनमत हैं, पर मतैक्य नहीं हैं। यह अभी तक यह नहीं पहचान सके कि उनकी अपनी राजनीतिक पार्टी कौन सी है जिसके परिणाम स्वरूप मतैक्य पर कब्जा ना कर सके। जिस दिन यह मतैक्य पर कब्जा कर लेंगे, उस दिन दिल्ली में इनकी सरकार होगी। किंतु समाज के ऐसे अभिवंचित वर्गों की उन्नति की पूर्ण कल्पना राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के जाल में पूरी तरह से उलझ चुकी है। इसलिए आज दलित सशक्तिकरण पर एक नए सामाजिक परिवेश में विचार करने की जरूरत है।

अतः आज समाज में बहुजन (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन-जाति, पिछड़ा वर्ग) जो अपना स्थान बना पाया है वह बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर के कठोर एवं दृढ़ कार्य का ही फल है। डॉ० अंबेडकर साहब इतने महान थे कि वह सामाजिक पीड़ा को स्वयं झेल कर बहुजन को एक सुनहरा भविष्य प्रदान किया है। आज डॉ० अंबेडकर हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनकी कृति आज भी हमें प्रेरणा दे रही है।