गांधी के आर्थिक विचारों की प्रासंगिकता

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गांधीजी एक व्यावहारिक अर्थशास्त्री थे। गांधी जी का आर्थिक दर्शन किसी प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री का दर्शन नहीं है। मार्शल, पीगू एवं कीन्स आदि 19वीं सदी के अर्थशास्त्रियों की भांति गांधी ने आर्थिक दर्शन के किसी सर्वभौमिक या सर्वकालिक सिद्धांतों की स्थापना नहीं की। पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित आर्थिक विकास की अवधारणा के अनुसार भौतिक विकास को ही आर्थिक विकास की कसौटी माना गया है जबकि गांधी ने ‘अर्थ’ के साथ नैतिकता सेवा भाव त्याग एवं मानव कल्याण के विभिन्न पक्षों को जोड़कर एक ऐसा स्वतंत्र दर्शन प्रस्तुत किया है जो व्यवहारिक जीवन की समस्त आर्थिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। सन 1937 में गांधी ने अर्थशास्त्र के संबंध में कहा था कि, सच्चा अर्थशास्त्र कभी भी नैतिक स्तर का विरोध नहीं करता है ठीक वैसे ही जैसे सभी सच्चे नीतिशास्त्र अपने नाम अनुकूल अवश्य ही अच्छे अर्थशास्त्र भी होने चाहिए। गांधी का आर्थिक दर्शन उन आर्थिक विचारों का समग्र रूप है जो मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों की नैतिक आधार पर माननीय दृष्टि से व्याख्या करते हैं। गांधी के आर्थिक विचारों का ज्ञान उनके द्वारा रचित ग्रंथों, लेखों, भाषण, संग्रहों तथा संपादित पत्रिकाओं आदि में समय-समय पर व्यक्त विचारों से मिलता है। इनमें उनकी आत्मकथा ( My Experiments with Truth), हरिजन (Harijan), यंग इंडिया (Young India), नवजीवन (Navjivan), शत-प्रतिशत स्वदेशी (Cent Percent Swadeshi), स्वदेशी खादी का अर्थशास्त्र (The Economics of Khadi), सर्वोदय (Sarvoday), हिंद स्वराज (Hind Swarajya), ‘ The Constructive Programme Towards Non-violent, Socialism,’ ‘India of My Dreams’ तथा Economic and Industrial Life and Relations आदि रचनाएं प्रमुख हैं।

गांधी युग में तत्कालीन भारतीय समाज आर्थिक गुलामी और शोषण से त्रस्त था। अंग्रेजी सरकार का आधार ही गरीब भारत के शोषण पर आधारित था। अंग्रेजों द्वारा भारत के गरीबों का रक्त चूसा जा रहा था और भारतीय संपत्ति को निर्लज्जतापूर्वक ब्रिटेन भेजा जा रहा था। यह वही भारत देश था जिसकी संपन्नता और वैभव के संबंध में फ्रांस के एक यात्री बर्नियर ने कभी लिखा था कि, “यह भारत एक ऐसा अथाह गड्ढा है जिसमें विश्व का अधिकांश सोना व चांदी चारों ओर से अनेक रास्तों से होकर जमा होता है परंतु उससे बाहर निकलने का उसे एक भी रास्ता नहीं मिलता है।“ परंतु अंग्रेजों की खुली बाजार नीति (Policy Of Free Trade) ने भारत को आर्थिक दृष्टि से बर्बाद कर दिया था।1 जिसके संबंध में डॉ० ई० वाचा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि, “भारत की आर्थिक व्यवस्था ब्रिटिश शासन के अधीन बिगड़ चुकी थी। यहां के चार करोड़ भारतीयों को दिन में केवल एक बार खाना खाकर संतुष्ट रहना पड़ता था। इसका एकमात्र कारण यह था कि इंग्लैंड भूखे किसानों से बलपूर्वक टैक्स प्राप्त करता था और यहां अपना माल भेज कर भरपूर लाभ कमाता था।“2 भारत की आर्थिक दुर्दशा का चित्रण करते हुए डब्लू० टी० थार्नटन ने लिखा है कि, “भारतीय लोग इंग्लैंड को आर्थिक कर (Tax) देते हैं। इसके कारण भारत का अपना सारा खून चूस गया है और उसकी औद्योगिक स्थिति के मुख्य स्रोत सूख गए हैं।“ सन 1900 में भारत की आर्थिक बदहाली का चित्रण सर विलियम डिग्वी ने इस प्रकार किया है “भारत में लगभग 10 करोड़ ऐसे निवासी हैं जिन्हें किसी भी समय भरपेट भोजन नहीं मिलता है। इस अध:पतन का दूसरा उदाहरण इस समय किसी भी उन्नतिशील देश में कहीं पर दिखाई नहीं देता है।“3 पंडित नेहरू ने भारत की आर्थिक दुर्दशा पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है कि “एक ग्रामीण उद्योग के बाद दूसरा ग्रामीण उद्योग नष्ट होता गया और भारत ब्रिटेन का आर्थिक उपकरण बन गया।“3

अंग्रेजों के शोषण पर आधारित कुटिल आर्थिक नीति का उल्लेख करते हुए दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक, ‘Poverty and Unbritish Rule in India’ में लिखा है कि, “अंग्रेजों के पूर्वगामी शासक कसाई थे जो इधर-उधर काटते थे परंतु अंग्रेज जिनके पास वैज्ञानिक चाकू है, हृदय को काट रहे हैं फिर भी घाव दिखाई नहीं देता, वे शीघ्र ही सभ्यता की उच्च बातों, उन्नति तथा ना जाने किन-किन बातों का प्लास्टर लगा देते हैं।“4 दादा भाई नौरोजी के हृदय की उक्त पीड़ा को गांधी गहराई से महसूस करते थे।

हिंद स्वराज : देसी मॉडल

गांधीजी ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से भारत वासियों के समक्ष ‘स्वराज’ का ‘देसी मॉडल’ प्रस्तुत करते हैं। गांधी का स्वराज एक वैकल्पिक सभ्यता का प्रारूप या ब्लूप्रिंट है। वह राज्य की सत्ता प्राप्त करने का कोई राजनीतिक एजेंडा या घोषणापत्र नहीं है। वास्तव में नेहरू, अरविंद घोष, विनोबा भावे और रविंद्र नाथ टैगोर आदि मनीषियों की भांति गांधी भी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे‌। वह मात्र एक राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक या अर्थशास्त्री ही नहीं थे बल्कि वे संतों की उस परंपरा से संबंध रखते थे जिसकी शुरुआत शंकर से मानी जाती है। शास्त्रीय अर्थों में गांधी न तो राजनीति शास्त्री थे, ना समाजशास्त्री और ना ही अर्थशास्त्री वरन वे इससे भी आगे बढ़कर सब कुछ थे।

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के पश्चात गांधी द्वारा रचित छोटी सी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ राजनीतिक सिद्धांत को गांधी का एक महत्वपूर्ण योगदान है। ‘हिंद स्वराज’ मैं आधुनिक सभ्यता, औद्योगिकरण, तर्कणावादी उपभोक्तावाद एवं भौतिकवाद के मुकाबले गांधी भारत के माध्यम से संपूर्ण विश्व के समक्ष इस सभ्यता का सर्वथा देसी मॉडल प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं जिनमें मानवीय मूल्यों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के आधार पर मानवता का कल्याण सुनिश्चित किया जा सकेगा। गांधी का मत है कि मानव जीवन एक संपूर्ण इकाई है, एक समग्र है जिसे खंडों में विभाजित नहीं किया जा सकता है। मनुष्य की विभिन्न गतिविधियों को अलग-अलग खंडों में विभाजित करना संभव नहीं। उसके जीवन की समस्त गतिविधियों का मूल आधार मानवीय और नैतिक ही होना चाहिए। गांधी मानव जीवन के विकास को ही सच्चा विकास मानते हैं। गांधी के अनुसार ‘जीवन का अर्थ है विकास और विकास का मुख्य विषय व्यक्ति (मानव) है। गांधी का आर्थिक दर्शन भी मानवीय तत्व के विकास की मूल भावना से प्रेरित है।

गांधी का मानव ‘आर्थिक मानव’ ना होकर ‘नैतिक मानव’ है और गांधी का अर्थशास्त्र ‘नीति शास्त्र’ है। सन् 1937 में गांधी ने इस संबंध में कहा था कि, “सच्चा अर्थशास्त्र कभी भी नैतिक स्तर का विरोध नहीं करता। ठीक वैसे ही जैसे सभी सच्चे नीतिशास्त्र अपने नामनुकूल अवश्य ही अच्छे अर्थशास्त्र भी होने चाहियें।“ आधुनिक अर्थशास्त्र में व्यक्ति मशीन का पुर्जा बनकर अपनी नैतिकता को खो देता है। गांधी का मत है कि, “सच्चा अर्थशास्त्र वही है जो सामाजिक न्याय और नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन करता है। आधुनिक परिभाषा में व्यक्तित्व को कर मशीन का पुर्जा बन जाना मनुष्य की प्रतिष्ठा को गिराना है।“4

गांधी का सर्वोदय

गांधी का अर्थशास्त्र ‘सर्वोदय का अर्थशास्त्र’ है। सर्वोदय का अर्थ है सबकी सम्मान उन्नति, एक व्यक्ति का भी उतना ही महत्व है जितना अन्य व्यक्तियों का सामूहिक रूप से। इनके अनुसार अमीर, मध्यमवर्ग, गरीब मूर्ख, विद्वान, छूत-अछूत तथा अल्पमत-बहुमत सब का उदय हो। सब की कमी की पूर्ति हो आमिर का उदय नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्यादा आवश्यक है तथा गरीब का आर्थिक क्षेत्र में। कल्याण न किसी एक वर्ग का हो, वरन सबका हो। कल्याण मात्र भारत का ही नहीं, वरन संपूर्ण विश्व का हो। सर्वोदयी नेता भूदान, संपत्ति दान तथा ग्राम दान का समर्थन करते हैं। इन योजनाओं की सफलता से अनेक लाभ होंगे। शोषण का अंत, दलगत प्रणाली के दुर्गुणों से मुक्ति, अहिंसा, विकेंद्रीकरण, सहयोग, पारिवारिक संबंध की स्थापना तथा हृदय परिवर्तन आदि इनके मुख्य लाभ हो सकते हैं। गांधी का अर्थशास्त्र समाज के अंतिम से अंतिम व्यक्ति के कल्याण पर आधारित है। सर्वोदय की धारणा गांधी में मूल रूप से ही विद्यमान थी वह परंतु रस्किन की पुस्तक ‘अन टू दिस लाइट’ को पढ़कर गांधी के हृदय में सर्वोदय की भावना और अधिक दृढ़ हो गई। इस पुस्तक का गांधी के अंतःकरण पर गहरा प्रभाव पड़ा। गांधी ने गुजराती भाषा में ‘सर्वोदय’ शीर्षक से रस्किन की पुस्तक ‘अन टू दिस लास्ट’ का अनुवाद भी किया है। अपनी पुस्तक ‘सर्वोदय’ मैं गांधीजी लिखते हैं कि, “जो चीज मेरे अंदर गहराई से छिपी हुई थी, रस्किन के ग्रंथ में मैंने उसका स्पष्ट प्रतिबिंब देखा।“

इस पुस्तक से गांधी को ज्ञान हुआ कि :-

  1. सबकी भलाई में हमारी भलाई निहित है।
  2. वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक सी होनी चाहिए क्योंकि आजीविका का अधिकार सबको एक सा है।
  3. मेहनत मजदूरी का किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।

गांधी ने स्वयं स्वीकार किया है कि, “पहली चीज मैं जानता था। दूसरी को मैं धुंधले रूप में देखता था, तीसरी का मैंने कभी विचार ही नहीं किया था। ‘सर्वोदय’ ने मुझे दिये की तरह दिखा दिया की पहली चीज में ही दूसरी दोनों चीजें समाई हुई हैं।“6 सवेरा हुआ और मैं इन सिद्धांतों पर अमल करने के प्रयास में लग गया। गांधी का सर्वोदय वेन्थम और मिल द्वारा प्रतिपादित उपयोगितावाद से सर्वथा भिन्न है। वेन्थम का उपयोगितावाद ‘अधिकतम संख्या के सुख’ (Greatest Good of Greatest Number) की वकालत करता है। वेन्थम का अधिकतम संख्या का अधिकतम सुख ‘विशुद्ध सुखवादी प्राणी है। जबकि गांधी का मानव आध्यात्मिक और नैतिक मानव है जो इस सभ्यता में आस्था रखता है कि –

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग भवेत।‘

                                                                                                      *श्रीमद्भागवत गीता

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अर्थात गांधी का मानव अपने भौतिक सुखों की कामना करने वाला स्वार्थी प्राणी नहीं है उसकी कामना तो यही है कि सभी लोग सुखी हो, सभी निरोगी हो, कोई दुख का भागी ना हो, सभी का कल्याण हो।

गांधी के अनुसार, ‘जिस राज्य में एक व्यक्ति भी भूखा है वह आदर्श राज नहीं है, चाहे उसमें रहने वाले ज्यादातर लोग कितने ही सुखी क्यों ना हो। इस आधार पर गांधी वेन्थम के अधिकतम संख्या का अधिकतम सुख (ग्रेटेस्ट गुड ऑफ ग्रेटेस्ट नंबर) के उपयोगिता वादी सिद्धांत को खारिज कर देते हैं। गांधी का ‘सर्वोदय का अर्थशास्त्र’ स्वत्याग (Self Sacrifice) और ‘नि:स्वार्थ सेवा’ (Selfless Service) जैसे उदान्त मानवीय तथा नैतिक मूल्यों पर आधारित है। 4 अक्टूबर 1949 में गांधी ने ‘हरिजन पत्रिका’ में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि, “मेरा जीवन लक्ष्य केवल भारतीयों में बंधुत्व की स्थापना करना नहीं है। वे एक ऐसे आदर्श सर्वोदय समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, शोषण, असमानता एवं हिंसा जैसी बुरी प्रवृत्तियों का सर्वथा अभाव होगा। सर्वोदयी समाज में सिद्धांतहीन राजनीति (Politics without Principle), धन बिना श्रम के (Money without Labour), बिना चरित्र के ज्ञान (Knowledge without Character), बिना नैतिकता के व्यापार (Business without Morality), विज्ञान बिना मानवता (Science without Humanity) और सेवा बिना त्याग (Service without Sacrifice को ‘महान पाप’ की संज्ञा दी गई है।

गांधी का ‘सर्वोदयी अर्थशास्त्र’ ग्राम स्वराज, आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं स्वावलंबन, मानव श्रम की प्रतिष्ठा, कृषि एवं कुटीर उद्योग धंधों का विकास, उत्पादन एवं वितरण प्रणाली के विकेंद्रीकरण, आर्थिक विषमता के उन्मूलन, साध्य एवं साधनों की पवित्रता, अस्तेय, अपरिग्रह एवं प्रन्यास के सिद्धांत पर आधारित आर्थिक विकास के स्वदेशी मॉडल पर आधारित है। गांधी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा और मजबूती पर आधारित आर्थिक विकास की वकालत करते हैं। गांधी के अनुसार, “भारत की आत्मा गांवों में बसती है और भारत के आर्थिक विकास का रास्ता गांव से होकर जाता है।“7 भारत गांवों का देश है। भारतीय अर्थव्यवस्था प्राचीन समय से ही कृषि प्रधान ग्रामीण अर्थव्यवस्था रही है। भारत की 80% जनसंख्या गांव में ही निवास करती है। अतः गांधी का विचार था कि गांव के पुनरुद्धार के बिना भारत के लिए स्वराज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। गांधी जी के शब्दों में, “यदि देश का विकास करना है तो पहले हमें गांव पर विशेष ध्यान देना होगा। भारत चंद शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों में निवास करता है अतः बिना गांव के विकास के भारत का विकास संभव नहीं है।“

गांधी जी भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले राष्ट्र के श्रम प्रधान तकनीक को ही उपयुक्त मानते थे। भारत की गरीब एवं बेरोजगार जनता की भलाई के लिए गांधी बड़ी-बड़ी मशीनों का विरोध करते थे परंतु छोटी-छोटी मशीनों और यंत्रों के प्रति उनका उदार दृष्टिकोण था। उनका विचार था कि मानवीय पक्ष मशीनीकरण से ऊपर है। वे मानव को प्रमुख एवं मशीनों को गौण समझते थे। उनकी धारणा है कि, “मशीन का अपना स्थान है लेकिन उसे आवश्यक मानवीय श्रम को अपदस्थ नहीं करने देना चाहिए। एक सुधरा हुआ हल अच्छी चीज है। लेकिन यदि एक मशीनी सुधारों के द्वारा भारत की सारी भूमि जोत लेता है और उसकी संपूर्ण उपज का मालिक बन जाता है, जिससे लोगों को रोजगार से वंचित होना पड़ेगा, वो भूखों मरेंगे और बेकार हो जाएंगे।“ इसलिए गांधीजी मानवीय श्रम और प्रतिष्ठा पर आघात करने वाली मशीनों के विरोधी थे लेकिन ऐसी मशीनों का वह निश्चय ही स्वागत करते थे जो “मनुष्य के श्रम को कम करती है और झोपड़ियों में रहने वाले लाखों-करोड़ों व्यक्तियों के भार को हल्का करती है।“8 गांधी के अनुसार, “ऐसे सादे औजारों या यंत्रों का जो व्यक्ति की मेहनत को बचाए झोपड़ी में रहने वाले लाखों करोड़ों का बोझ कम करें स्वागत है।9 परंतु ऐसे उद्योग जिनसे बेरोजगारी बढ़े और केवल उद्योगपतियों की आय में वृद्धि हो नहीं लगाए जाने चाहिए।“ गांधी मानते थे कि मशीनों से कार्य करना सुविधाजनक तो है ही परंतु मशीनें वरदान नहीं हो सकती हैं।

विकेंद्रीकरण का सिद्धांत

गांधी के आर्थिक दर्शन का आधार विकेंद्रीकरण का सिद्धांत है। वे राजनीतिक ही नहीं वरन् आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी विकेंद्रीकरण को अनिवार्य मानते हैं। जिस प्रकार राजनीतिक स्तर पर सत्ता की सफलता तभी सुनिश्चित हो सकती है जब सच्चे अर्थों में वास्तविक सत्ता जनता के हाथों में निहित हो उसी प्रकार आर्थिक विकास, समृद्धि और संपन्नता के लिए भी यह जरूरी है कि उत्पादन प्रक्रिया गांव से ही शुरू की जाए। क्योंकि यदि गांव समृद्ध होंगे तो देश स्वयं ही समृद्ध हो जाएगा। गांधी मानते थे कि आर्थिक विकेंद्रीकरण लोकतंत्र का आधार है। और ग्राम पंचायतें लोकतंत्र को स्थापित करने वाली मूल इकाई है जो स्वच्छ प्रशासन और न्याय प्रदान करती है। सत्ता के विकेंद्रीकरण के बिना धन एवं संपत्ति का विकेंद्रीकरण संभव नहीं है। अतः ग्राम पंचायतों के माध्यम से गांधी राज व्यवस्था में सत्ता के विकेंद्रीकरण की स्थापना करना चाहते थे। गांधी का कहना था कि, बड़े-बड़े उद्योगों के केंद्रीकरण से समाज में नाना प्रकार की विषमतायें उत्पन्न होने लगती हैं और इससे अर्थव्यवस्था का संतुलित विकास बाधित होता है तथा आर्थिक शक्तियों का केंद्रीकरण और असमान वितरण समाज को विभाजित कर देता है। या अमीर तथा गरीब को एक दूसरे का विरोधी बनाकर समाज की शांति को सदैव के लिए नष्ट कर देता है।10 अतः गांधी राजनीतिक एवं आर्थिक दोनों ही क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण को अपनाने पर जोर देते हैं। यंग इंडिया में गांधी लिखते हैं कि, “मेरी मौलिक आपत्ति बड़ी मशीनरी के विरुद्ध इस आधार पर है कि इसने राष्ट्रों को एक दूसरे के शोषण के योग्य बना दिया है। वास्तव में स्वयं यह काष्ठ या धातु की वस्तु होती है और अच्छे और बुरे काम के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है किंतु हम देखते हैं कि इसका दुरुपयोग ही हो रहा है।“11

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गांधी का विचार है कि विकेंद्रीकरण में औद्योगिक समाजों की कई गंभीर समस्याओं का निदान निहित है। उनके शब्दों में, “तनाव, हिंसा और अशांति को यदि रोकना है तो आर्थिक क्षेत्र का भी विकेंद्रीकरण होना चाहिए। इस हेतु बड़ी-बड़ी मशीनों के स्थान पर लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना चाहिए। विकेंद्रित अर्थव्यवस्था में श्रमिकों का शोषण नहीं होता है और रोजगार में वृद्धि के अनेकों अवसर उत्पन्न होते हैं।“12 गांधीजी चाहते थे कि कृषि से शेष समय में किसान लघु तथा कुटीर उद्योग धंधों में व्यस्त रहकर किसी न किसी प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में व्यस्त रहें। इससे ग्रामीण किसानों की अनेकों समस्याओं का समाधान हो सकता है। इसके लिए गांधी सदैव कुटीर उद्योगों के उत्पाद जैसे चटाई, झाड़ू, मिट्टी के बर्तन, खिलौने, चमड़े का सामान तथा हस्तशिल्प एवं पशुपालन जैसी आर्थिक क्रियाओं को प्रोत्साहन देने की बात करते हैं। गांधी जी का विचार था कि, “ग्रामीण क्षेत्रों में कच्चे माल की कमी नहीं है अतः सूत कातना, गुड बनाना, धान से चावल तैयार करना, नीम का तेल निकालना, हाथ से कागज बनाना, जैसे कार्यों के माध्यम से बेरोजगारी, प्रदूषण और शोषण जैसी समस्याओं से किसानों को बचाया जा सकता है।“13

1917 में गांधी जी द्वारा किसानों के लिए अमानवीय करों से मुक्ति हेतु चलाया गया सत्याग्रह आंदोलन तथा 1918 में किसानों के पक्ष में चलाया गया ‘कर नहीं आंदोलन’ (No Tax Campaign) सरकार की करारोपण नीति के विरोध में ही था जिसमें गांधी को व्यापक सफलता प्राप्त हुई। चंपारण में नील की खेती करने वाले गरीब किसानों से अंग्रेज सरकार द्वारा जबरदस्ती कर वसूल किया जाता था। खेती में नुकसान के बावजूद भी किसानों पर लगान बढ़ा दिया जाता था। गांधी जी का विचार था कि, “करो की दर एवं मात्रा ना तो ज्यादा होनी चाहिए और ना ही कम। यदि करारोपण की दर ज्यादा है या ज्यादा मात्रा में कर लिए जा रहे हैं तो इससे कर अपवंचन बढ़ेगा और कर की मात्रा यदि कम है तो पर्याप्त राजस्व नहीं मिल सकेगा।“14 गांधीजी अभी चाहते थे कि सरकार कर से प्राप्त राजस्व को गरीब जनता के लिए ही खर्च करें तभी समाज में सबका भला हो सकता है। वे कर को समाज कल्याण का माध्यम (घटक) मानते थे और चाहते थे कि कर से प्राप्त राजस्व की बर्बादी ना हो। अंग्रेजों द्वारा करो से प्राप्त राजस्व का उपयोग भोग विलास के लिए किया जा रहा था और भारतीय धन तेजी से ब्रिटेन जा रहा था। गांधीजी इसे ही भारत की गरीबी और आर्थिक दुर्दशा का एक प्रमुख कारण मानते थे।

1934 में ‘हरिजन’ पत्रिका में गांधीजी लिखते हैं कि, “ग्रामोद्योगो की योजना के पीछे मेरी कल्पना तो यह है कि हमें अपने रोजमर्रा की आवश्यकताऐं गांव में बनी चीजों से ही पूरी करनी चाहिऐं और जहां तक मालूम हो कि अमुक चीजें गांव में मिलती ही नहीं है वहां हमें यह देखना चाहिए कि उन चीजों को थोड़े परिश्रम और संगठन से बनाकर गांव वाले उनसे कुछ मुनाफा उठा सकते हैं या नहीं।‌। मुनाफे का अंदाजा लगाने में हमें अपना नहीं किंतु गांववालों का ख्याल रखना चाहिए।“15

ट्रस्टीशिप

गांधीजी चाहते थे कि समाज में सभी वर्गों को जीवन की सभी आवश्यक वस्तुऐं समान रूप से उपलब्ध होनी चाहियें। इसके लिए गांधीजी ‘प्रन्यास के सिद्धांत (Principle of Trusteeship) या संरक्षण का सिद्धांत’ की आवश्यकता पर जोर देते हैं। ट्रस्टीशिप का सिद्धांत इस बात पर आधारित है कि जिसके पास धन है, वह उसे अपना समझ कर फिजूल व्यय ना करें। उस धन को थाती समझ कर रखे और लोक कल्याण में खर्च करें। जब तक धनिक वर्ग शिक्षा से अपना धन त्याग नहीं देता अथवा उसे जनता की अमानत समझकर खर्च नहीं करता तब तक हिंसात्मक क्रांति अनिवार्य है। धनाठ्य लोग यदि जन सामान्य की तरह सादगी से रहते हैं और खर्च कम करते हैं तो वे जनता के ट्रस्टी कहे जा सकते हैं। जो ट्रस्टीशिप की भावना रखेगा, वह लोगों को दबाकर एवं उनका शोषण करके धन नहीं जमा करेगा। गांधीजी पूंजी पतियों के उस प्रकार के विरोधी नहीं थे जिस प्रकार के विरोधी कार्ल मार्क्स थे। गांधी एवं मार्क्स दोनों ने व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकता का विरोध किया है, परंतु दोनों ने अलग-अलग ढंग से इसका विरोध किया है। गांधी पूंजीपतियों तथा श्रमिकों के बीच समन्वय, सहयोग और पारस्परिक त्याग को अनिवार्य मानते हैं, वहीं मार्क्स इन दोनों वर्गों के बीच वर्ग संघर्ष और एक का अंत अनिवार्य मानते हैं। गांधी समाज के दो वर्गों को एक दूसरे का पूरक बनाना चाहते हैं परंतु मार्क्स पूंजीपति वर्ग के अंत को ही सही और उपयुक्त समाधान मानते हैं। गांधी हृदय परिवर्तन द्वारा पूंजीवाद, शोषण तथा आर्थिक विषमता का अंत चाहते हैं जबकि मार्क्स शक्ति प्रयोग द्वारा पूंजी पतियों का खात्मा। गांधी पूंजी का स्वामित्व पूंजी पति के हाथ में छोड़ कर उसका सार्वजनिक उपयोग चाहते हैं परंतु मार्क्स संपत्ति का स्वामित्व और उपयोग दोनों सर्वहारा वर्ग के हाथ में देना चाहते हैं।

गांधी की न्यासधारिता का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि मनुष्य भले ही करोड़ों की संपत्ति अर्जित करें परंतु यह बराबर ध्यान रखें कि वह अर्जित संपत्ति उसकी नहीं है, बल्कि सारे समाज की है। उसके पास जो कुछ भी है, वह उसका ट्रस्टी है। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसके पास कोई न कोई शक्ति नहीं हो। यह जितनी शक्तियां हैं मनुष्य उन सब का केवल ट्रस्टी बने। ये  शक्तियां उसे इसलिए प्राप्त हुई हैं कि इनके द्वारा वह उत्पादन करें और अपनी आवश्यकता के अनुकूल उसका उपयोग करें ताकि समाज अधिक से अधिक कल्याण की कल्पना साकार कर सकें। इस विषय में दो मत नहीं है कि जब प्रत्येक व्यक्ति अपने को ऐसा समझेगा तब समाज में सर्वोदय की अर्थव्यवस्था होगी और उसके तीन प्रमुख आधार होंगे – अहिंसा, शोषणविहीन समाज एवं समता।

जनसंख्या एवं आर्थिक विकास

गांधीजी जनसंख्या तथा आर्थिक विकास दोनों को परस्पर घनिष्ठ रुप से संबंधित मानते थे, मद्य निषेध, मानव विकास तथा पर्यावरण के मुद्दे भी गांधी के आर्थिक मॉडल का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। गांधीजी ने जनसंख्या के संबंध में भी अपना विचार व्यक्त किया है। वे पूर्णतया धार्मिक एवं नैतिक व्यक्ति थे। अंत: उनका दृढ़ मत था की जनसंख्या वृद्धि को नैतिक तरीकों से ही रोका जाए। जनसंख्या के विचार के संबंध में माल्थस एवं गांधीजी में समानता है। गांधीजी मानते थे कि आज जो भ्रष्टाचार है, संपत्ति की तृष्णा है, जीवन में भोग विलास है, इन सब का कारण है आत्म संयम की कमी। माल्थस के कुछ अतिशयोक्तियों से गांधी जी सहमत नहीं थे, परंतु जहां तक संयम, नियम, अन्य आचार-विचार का संबंध है, उससे सहमत थे। जनसंख्या के संबंध में गांधीजी का कहना है कि, “बढ़ती जनसंख्या राष्ट्रीय हित में नहीं है क्योंकि इससे प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूल होने चाहिए यदि प्राकृतिक संसाधन कम मात्रा में है तो देश की जनता को ब्रह्मचर्य और स्वयं के द्वारा जनसंख्या में वृद्धि पर नियंत्रण लगाना चाहिए।“16 गांधी जी का विचार था कि, “यदि भूमि की उचित व्यवस्था, बेहतर कृषि हो तथा सहायक उद्योग धंधों का जाल फैला हो तो देश आज की तुलना में दुगुनी जनसंख्या का भरण पोषण कर सकता है। यदि जनसंख्या ज्यादा है तो सरकार बेहतर प्रबंधन के माध्यम से इसका भरण पोषण भी कर सकती है।“17 इस प्रकार गांधीजी राष्ट्र के आर्थिक विकास का जनसंख्या से सीधा संबंध मानते थे और राज्य के संसाधनों के अनुरूप जनसंख्या का समर्थन करते थे।

गांधीजी और मूल्यपरक शिक्षा

महान गांधीवादी नेता और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने कहा कि, “शिक्षा वह हथियार है, जिससे दुनिया बदली जा सकती है।“ विश्व गुरु रहे भारत ने अत्यंत प्राचीन काल से ही पूरे विश्व को ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से आलोकित किया है। तक्षशिला, पल्लवी और नालंदा विश्वविद्यालय समेत कई ऐसे प्रकाश स्तंभ थे, जहां धर्म, आयुर्वेद, ज्योतिष, वास्तुकला, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, ज्ञान, दर्शन, संस्कृति और संस्कार के प्रकाश से पूरा विश्व आलोकित होता था। कई देशों से विद्यार्थी यहां अध्ययन करने के लिए आते थे। समय बदला, इसके साथ ही भारत का इतिहास भी बदला। विदेशी आक्रांताओं ने भारत पर कई वर्षों तक शासन किया और उन्होंने अपनी सत्ता की संपूर्ण ताकत से भारतीय संस्कृति, आध्यात्म और चेतना की विरासत को कुचलने का प्रयास किया। आज आधुनिकता की दौड़ में हम परिवार के अंदर ही बंटकर रह गए हैं, मूल्यों की अनदेखी कर हम नैतिकतावादी प्रगति को सर्वस्व मान रहे हैं। खुद को हमने कंप्यूटर तक सीमित कर लिया है और स्मार्टफोन को ही अपनी दुनिया मान बैठे हैं। नैतिकतावाद की चुनौती का मुकाबला हम केवल मूल्यों के आधार पर कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति परंपरा से उपजे ये शाश्वत मूल्य हमारी हर चुनौती में मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं। मेरा मानना है कि इन जंजीरों और बेङियों से बाहर निकलने में बापू के विचार हमारे लिए मददगार साबित हो सकते हैं। गांधी जी जो कहते थे, वह करते थे, उसे यथार्थ में जीकर दिखाते थे। गांधी जी सदैव भारतीय संस्कृति परंपराओं के समर्थक रहे हैं। वे भारतीय संस्कृति को असाधारण और महत्वपूर्ण मानते थे।18

गांधीजी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार जैसी आधारभूत सुविधाओं के विकास को प्राथमिकता पर रखते हैं। गांधी जी का विचार था कि, “यदि शिक्षा दोषपूर्ण होगी या सिर्फ आर्थिक स्वार्थों को समझने वाली होगी तो देश में आदर्श व्यवस्था की स्थापना नहीं हो सकती है।“ अंग्रेजों द्वारा भारत वासियों पर जबरन थोपी गई पाश्चात्य शिक्षा पद्धति को गांधी जी भारत की संस्कृति के खिलाफ मानते थे। पाश्चात्य शिक्षा पद्धति ज्ञान परख ना होकर विदेशी भाषा परक शिक्षा पद्धति है। गांधीजी इस पद्धति से क्षुब्ध थे। गांधी जी द्वारा प्रतिपादित ‘वर्धा स्कीम ऑफ एजुकेशन’ शिक्षा पद्धति का मुख्य आधार ‘बुनियादी शिक्षा’ था। गांधीजी मानसिक के साथ-साथ चारित्रिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं शारीरिक विकास को शिक्षा का उद्देश्य मानते थे। गांधी जी द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षा के दो मूलभूत उद्देश्य थे – पहला तो यह कि शिक्षा को सही अर्थ में शिक्षित होने का माध्यम बनाया जाए और दूसरा यह कि शिक्षा को आत्मनिर्भरता के सिद्धांत से जोड़ा जाए। गांधीजी के अनुसार, “शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसमें ज्ञान के साथ-साथ आय के अर्जन तथा रोजगार की प्राप्ति भी हो सके। शिक्षा ऐसी हो जो बच्चों में गुण तथा संस्कारों का विकास करें और उन्हें ज्ञानवान बनाकर रोजगार भी प्रदान करें।“ गांधीजी बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम में हस्तकला को विशेष महत्व देते हैं। हस्तकला को वे सीधे अर्थव्यवस्था से जोड़कर देखते थे। उनका विचार था कि, “अगर विद्यार्थी प्रारंभ से ही किसी सहज कला की ओर अग्रसर हो जाए तो उसको पेट भरने की समस्या का समाधान मिल जाएगा और भारत की परंपरागत हस्तकलाओं को भी आश्रय मिलेगा। स्वाबलंबन की भावना मजबूत होगी।“ गांधी जी का विचार था कि उच्च शिक्षा का उद्देश्य भी देश की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए।19 तत्कालीन भारत में प्रचलित लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति को गांधीजी अव्यावहारिक और अनुपयोगी मानते थे। उनका विचार था कि, “इस प्रकार की शिक्षा पद्धति से साक्षरता तो हासिल होती है लेकिन ज्ञान नहीं। ऐसी शिक्षा ना तो मनुष्य का आध्यात्मिक विकास करती है ना ही रोजी-रोटी दे पाती है।“ निश्चित रूप से गांधी की शिक्षा व्यवस्था ‘सर्वोदय’ का मार्ग प्रशस्त करती है।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था “शिक्षा ही मनुष्य के सर्वोन्मुखी विकास का एकमात्र साधन है।“ अतः ‘नई तालीम’ के द्वारा हम बच्चों में एक नई वैचारिक क्रांति जगा दें, जो स्वयं सक्षम हों, स्वावलंबी बनें। वे सजग बनें, जागरूक बनें, वे देश निर्माण में सहयोगी बनें, उनमें सृजनात्मकता का पूर्ण विकास हो, यही नई तालीम है। इन सिद्धांतों के व्यवहारिक रूप देने में शिक्षक की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। मुझे विश्वास है कि नई शिक्षा नीति के माध्यम से, नवाचार, अनुसंधान के माध्यम से हम नव भारत के निर्माण में अपने अध्यापकों को प्रेरित कर पाएंगे। नई शिक्षा नीति के माध्यम से महात्मा गांधी के सपनों को पूरा करने का हमने संकल्प लिया है। आध्यात्मिक और मानवीय मूल्य जीवन के निराशा और हताशा के क्षणों में आशा और आत्मबल की शक्ति का संचार करके मनुष्य को एक बार फिर नई उड़ान भरने योग्य बना देते हैं। नई शिक्षा नीति में हमने ध्यान रखा है कि इन मानवीय मूल्यों को केवल शिक्षा के माध्यम से छात्रों के भीतर विकसित किया जा सकता है।20

गांधी एवं पर्यावरण

गांधीजी पर्यावरण के मुद्दे को भी आर्थिक विकास से जोड़कर देखते हैं। यद्यपि गांधीजी के समय पर्यावरण पर इतना गंभीर संकट नहीं उत्पन्न हुआ था परंतु गांधी जी को डर था कि यदि भोग प्रधान तर्कणाबादी प्रवृत्ति और लोभ लिप्सा के कारण मनुष्य आधुनिक सभ्यता के प्रभाव में आकर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करेगा तो भविष्य में पर्यावरण को गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है। इसलिए वे पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित थे। यद्यपि गांधी जी ने पर्यावरण संरक्षण को साफ-सफाई एवं स्वच्छता से ही जोड़ कर देखा था और एक ऐसे आदर्श स्वच्छ ग्राम की कल्पना की थी जिसमें हर झोपड़ी साफ-सुथरी हो, हर व्यक्ति स्वच्छ और पूरा ग्राम हरा भरा हो। गांधी जी का विचार था कि विकृत उपभोक्तावाद निश्चित रूप से पर्यावरणीय असंतुलन और पर्यावरण संकट को जन्म देगा।21

पर्यावरण प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से जनसंख्या वृद्धि, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, कल कारखानों का विकास, वाहनों की वृद्धि और आणविक विस्फोट को जिम्मेदार माना जाता है। पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने कहा है कि, “भोगवादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है। यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो इसका असामयिक अंत निश्चित है।“22

निष्कर्ष

गांधी के आर्थिक विकास का लक्ष्य ‘सर्वोदय’ अर्थात सबका उत्कर्ष, सबका विकास और सबका सुख है। वह आर्थिक विकास के माध्यम से देश की जनता के भौतिक, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक स्तर को उस सीमा तक ऊंचा उठाना चाहते थे जिससे कि ‘सर्वोदय’ के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। गांधीजी चाहते थे कि आधुनिक तकनीक मानव केंद्रित प्रकृति संगत बने, प्रकृति के साथ उसका विरोधाभास ना हो, वह मनुष्य की सृजनशीलता के अनुरूप हो। वे ग्रामीण स्वाबलंबन, आत्मनिर्भरता, कृषि क्षेत्र के वैज्ञानिक विकास, कुटीर उद्योगों का विस्तार, श्रम की प्रतिष्ठा, उत्पादन एवं वितरण प्रणाली का विकेंद्रीकरण, स्वदेशी, सर्वोदय, आर्थिक विषमता का उन्मूलन, अस्तेय, अपरिग्रह और प्रन्यास के आर्थिक सिद्धांतों के माध्यम से भारत को उसका पुराना गौरव और आत्म सम्मान दिलाने की बात करते हैं। गांधी जी का अर्थशास्त्र ‘मानव विकास के बिना’ ‘आर्थिक विकास’ को अपूर्ण एवं अधूरा मानता है। गांधीजी मानते हैं कि मानव विकास तभी संभव है जब आर्थिक विकास के साथ-साथ मानव जीवन के नैतिक, आध्यात्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक, आदि सभी पक्षों का सर्वागीण विकास भी हो। गांधीजी ने आर्थिक विकास की कल्पना मानव विकास के माध्यम से की है और विकास के साधनों में वह मानवता को प्राथमिकता देते हैं। वे चाहते हैं कि सभी लोग मिल-जुलकर अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुरूप आर्थिक क्रियाओं का संपादन करें तथा उत्पादन में योगदान दें। ‘वैश्विक अर्थशास्त्र’ को मानवीय चेहरा प्रदान करने के लिए हमें गांधी के बताए मार्ग का ही अनुसरण करना होगा। नि:संदेह गांधी की प्रसंगिकता आज पहले की तुलना में और अधिक बढ़ गई है। गांधी सत्य, अहिंसा, वसुधैव कुटुंबकम, त्याग, उदारता एवं मानवता के सनातन शाश्वत मूल्यों के प्रतीक थे। और ज्यों- ज्यों विश्व में मानवता के शाश्वत मूल्यों पर संकट के बादल गहराते जाएंगे, त्यों-त्यों गांधी की प्रसंगिकता बढ़ती ही जाएगी। गांधी आधुनिक एवं नैतिक क्रांति के साक्षात प्रतीक थे। गांधी का एक जीवन दर्शन है, एक विस्तार है, सदी के लिए गांधी ही मानवता का भविष्य है। वर्तमान भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा 2 अक्टूबर 2014 को गांधी जयंती के अवसर पर घोषित ‘स्वच्छ भारत-स्वस्थ भारत’ में मेक इन इंडिया, सांसद आदर्श ग्राम योजना, सामूहिक सामाजिक भागीदारी, आदि कार्यक्रमों की घोषणा से आभास होता है कि भारत राष्ट्र के जीवन में यह शुभ घड़ी आ गई है जब भारत को अपने पुराने वैभव और विश्व गुरु की ख्याति को संपूर्ण विश्व पटल पर जोरदार ढंग से दर्ज कराना होगा।

संदर्भ सूची

  1. “भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, संविधान शासन तथा राजनीति” जे० श्याम सुंदरम्, सी० पी० शर्मा, राम प्रसाद एंड संस, आगरा-3, भोपाल, पृष्ठ 16।
  2. वही उपरोक्त 1, पृष्ठ 17।
  3. वही उपरोक्त पृष्ठ 17।
  4. वही उपरोक्त पृष्ठ 17।
  5. डॉ० एम० के० मिश्रा, डॉ० कमल दाधीच, “गांधी का आर्थिक चिंतन”, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, पृष्ठ 22।
  6. “मेरी आत्मकथा – सत्य के प्रयोग”, नवजीवन पब्लिशर्स, अहमदाबाद, पृष्ठ 27।
  7. “गांधीय आर्थिक दर्शन”, डॉ० धर्मेंद्र सिंह, प्राक्कथन, प्रो० रामनरेश मिश्र, रीगल पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, पृष्ठ 4-5।
  8. “यंग इंडिया”, नवंबर-5, 1925, नवजीवन पब्लिशर्स, अहमदाबाद ।
  9. “यंग इंडिया”, 1924, नवजीवन पब्लिशर्स, अहमदाबाद, ।
  10. “गांधी एक अध्ययन”, डॉ० सुरजीत कौर जौली, कंसेप्ट पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ 33।
  11. “यंग इंडिया”, 1931, नवजीवन पब्लिशर्स, अहमदाबाद ।
  12. “हिंद स्वराज एक कैश लुक”, 1985, नागेश्वर प्रसाद (संपादित), नई दिल्ली गांधी पीठ फाउंडेशन, पृष्ठ-111।
  13. “सोशल एंड पोलिटिकल थ्योरी ऑफ महात्मा गांधी” (2000), विद्युत चक्रवर्ती, लंदन राटलेज, पृष्ठ-82।
  14. “गांधी, संपूर्ण गांधी वाङ्मय”, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली खंड-48, पृष्ठ-458।
  15. हरिजन, 1934, नवजीवन पब्लिशर्स, अहमदाबाद।
  16. “हिंद स्वराज की प्रासंगिकता” (2005), अमित कुमार शर्मा, कौटिल्य प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ-64-65।
  17. “Socialism from Gandhi” (1958), N. K. Bose, Navjeevan Prakashan Mandir, Ahmedabad, Pp-709।
  18. “गांधीजी और मूल्यपरक शिक्षा”, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 38।
  19. “यंग इंडिया”, 1939, नवजीवन पब्लिशर्स, अहमदाबाद।
  20. “गांधीजी और मूल्यपरक शिक्षा”, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 38।
  21. “21वीं सदी में गांधी का आर्थिक दर्शन”, वीणा गोपाल मिश्रा, रीगल पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, पृष्ठ 113-146।
  22. “पर्यावरण दर्शन” (जून, 1996), दुर्गादत्त पाण्डेय, परामर्श (हिंदी) खंड-17, अंक-3, दर्शन विभाग, पुणे विश्वविद्यालय, पुणे, पृष्ठ-252।