भारत 2047 तक 40 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की राह पर…

भारत की शतकीय पारी और विज्ञानः विकसित देश होने की राह पर….

गौतम आर. देसिराजू और शरण शेट्टी

15 अगस्त, 2022 को जब भारत ने आजादी के 75 वर्ष पूरे कर लिये, उस समय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने हम सबका आह्वान किया था कि हम उस यात्रा में शामिल हो जायें, जिसमें भारत 2047 तक एक विकसित देश के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। यही वह वक्त है, जब एक आजाद देश के रूप में भारत अपनी शतकीय पारी पूरी करेगा। प्रधानमंत्री के वक्तव्य की मुख्य विशेषताओं में इस यात्रा के तीन पड़ावों का जिक्र था – यह तथ्य कि हम आकांक्षी समाज बन गये हैं, यह कि अब भारतीयों में सांस्कृतिक व सभ्यतामूलक पुनर्जागरण हो रहा है और यह कि विश्व में हम अपना अधिकारपूर्ण स्थान प्राप्त करने का जो दावा कर रहे हैं, उसे अब पूरी दुनिया गंभीरता से ले रही है। हर चीज की योजना के लिये 25 वर्षों का समय कोई लंबा समय नहीं होता और यह बिलकुल साफ है कि विज्ञान व प्रौद्योगिकी में ठोस प्रगति किये बिना, ‘विकसित’ होने के इस तमगे को प्राप्त करना कठिन होगा। अगर विकसित देश का दर्जा हासिल करना है, तो भारतीय विज्ञान के लिये उसी के अनुरूप ठोस रोडमैप तैयार करना होगा। पिछले सप्ताह बाली, इंडोनेशिया में जी-20 की अध्यक्षता प्राप्त करते समय इन मुद्दों को रेखांकित किया गया था। विशेष रूप से देखा जाये, तो विज्ञान-20 या एस-20 साइंस इंगेजमेन्ट ग्रुप को सरकार ने स्थापित किया है।

बिना वक्त गंवाये, केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह ने एस-20 शिखर बैठकों की तैयारी का जायजा लेने के लिये एक उच्चस्तरीय समीक्षा बैठक की अध्यक्षता की। एस-20 शिखर बैठक अगले वर्ष कोयंबटूर में होगी, जिसकी विषयवस्तु ‘डिसरप्टिव साइंस फॉर इनोवेटिव एंड सस्टेनेबल गोल’ है। इस शिखर बैठक के दौरान ‘रिसर्च इनोवेशन इनीशियेटेड गैदरिंग’ (आरआईआईजी) विषय पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जायेगा। आरआईआईजी बैठक के उप-विषयों में सतत ऊर्जा के लिये सामग्रियां, वैज्ञानिक चुनौतियां व सतत ब्लू इकोनॉमी, जैव-विविधता और जैव-अर्थव्यवस्था की प्राप्ति के लिये अवसर तथा ऊर्जा अंतरण के लिये आर्थिक-नवोन्मेष शामिल हैं। सरकार को उम्मीद है कि शिखर बैठक सहयोगात्मक वातावरण को बढ़ावा देगी, जहां पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकियों के लिये प्रारूपों को प्रोत्साहन मिलेगा। इसके अलावा प्रौद्योगिकी स्थानांतरण, वैश्विक स्टार्ट-अप इको-प्रणाली की रचना तथा आईपी शेयरिंग पर आग्रह एजेंडा का हिस्सा होंगे।

विश्व मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में हमें कई दशक लगे हैं। अगले वर्ष, जब भारत जी-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा, तब हमारे पास यह शानदार अवसर होगा कि हम आगे की राह दिखायें तथा तकनीकी आत्मनिर्भरता और विदेशी सोर्सिंग के बीच संतुलन बिठा सकें। एक प्रधानमंत्री का कर्तव्य होता है कि वह एक राष्ट्रीय परिकल्पना प्रस्तुत करे। इस क्रम में प्रतिष्ठित प्रधानमंत्रियों ने अतीत में जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान के रूप में इसे प्रस्तुत किया था। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने इसमें अब जय अनुसंधान को जोड़ दिया है। विज्ञान और शोधात्मक नवोन्मेष बहुत महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। वे निरंतरता और समावेशिता के मद्देनजर जन-परिवेश में भी शामिल हो गये हैं। यह बहुत खास बिंदु है, क्योंकि कोई भी देश मात्र समान उच्च जीवन मानकों के बल पर विकसित अर्थव्यवस्था नहीं बना है। उसके लिये विज्ञान और अनुसंधान व विकास प्रक्रिया में भारी निवेश भी करना पड़ता है, जिसके तहत विज्ञान प्रयोगशालाओं से निकलकर जन-मानस तक पहुंच जाता है। हमारे औपनिवेशिक दुर्भाग्य ने हमें विकसित राष्ट्र बनने की यात्रा को पश्चिम की तुलना में 150 वर्ष तथा चीन की तुलना में मोटे तौर पर 30 वर्ष पीछे कर दिया। हमने जो 25-वर्षीय योजना बनाई है, उसे हासिल किया जा सकता है – लेकिन यह तभी होगा, जब हम बिलकुल सटीक रणनीति के साथ योजना बनायेंगे और उस पर अमल करेंगे।

आंकड़ों के आधार पर देखें, तो इस वर्ष ~7.8 प्रतिशत की विकास दर के बल पर वर्ष 2026-27 तक (यदि तेल की कीमतों में कोई भारी उलट-फेर न हो) हम पांच ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे। जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा तक संभावित पहुंच के कारण सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि हम 2031-32 तक 9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तथा 2047 तक 40 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। इस स्थिति में हम सिर्फ पीपीपी नंबरों के आधार पर नहीं, बल्कि पूर्ण मौद्रिक संदर्भों में दुनिया के तीन सर्वोच्च देशों में शामिल हो जायेंगे।

2047 का लक्ष्य हासिल करने के लिये हमें क्या करना होगा? आर. जगन्नाथ और आशीष चंदोरकर ने स्वराज्य में जो लिखा है, हमें उस पर ध्यान देना होगा। इसके अतिरिक्त, मैं इसमें शिक्षा, फार्मा व महिला स्वास्थ्य सहित स्वास्थ्य, निर्यात, मांग-आपूर्ति के असंतुलन पर ध्यान देना, उर्वरक सहित पोषण, समुद्री और ध्रुवीय अनुसंधान सहित जल, जलवायु परिवर्तन, जिनोमिक्स, नैनोमेटीरियल सहित उन्नत पदार्थ, रोबोटिक्स, विद्युत और सौर ऊर्जा चालित वाहन, ड्रोन, वाह्य अंतरिक्ष, सूचना प्रौद्योगिकी को आमतौर पर जोड़ना चाहूंगा। इसमें कुछ जरूरी सेक्टरों को भी जोड़ना उचित होगा, जहां विशेषज्ञों द्वारा संचालित वैज्ञानिक कार्य-पद्धति को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धात्मक प्रौद्योगिकी में बदलना शामिल है। विकसित देश बनने की सीढ़ी चढ़ते वक्त उद्योग को केंद्रीय भूमिका अदा करनी होगी, जिसमें सरकार मुख्य तथा सुविधा प्रदान करने वाली भूमिका में होगी। इन सबको वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के संदर्भ में लेना होगा। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला देशों के बीच एक नये युद्ध का औजार बन चुकी है – जिसे हम ठंडे स्थान पर गर्म युद्ध कह सकते हैं।

25 वर्ष की इस छोटी सी अवधि को मद्देनजर रखते हुये, हम कुछ अड़चन वाले क्षेत्रों में आयातित समाधानों की उपेक्षा नहीं कर सकते। इसके लिये भारत के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुये सोची-समझी विदेश नीति की जरूरत है। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि कोई भी देश परिस्थितियों को देखते हुये मित्र भी हो सकता है, तटस्थ हो सकता है या विरोधी भी हो सकता है। आर्थिक मोर्चे पर, तकनीकी मामलों को आगे बढ़ने, कौशल विकास, ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी, कृत्रिम बौद्धिकता तथा आपूर्ति श्रृंखला की खामियों पर भी ध्यान देना होगा; यह भारी-भरकम पैकेज है।

गैर-आर्थिक, गैर-वैज्ञानिक मामले भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इन पर फौरन ध्यान देना होगा, वरना ये मुद्दे तकनीकी प्रगति के सारे प्रयासों को कमजोर कर सकते हैं। जगन्नाथन ने सात आपात मुद्दों की सूची बनाई है, जिन पर फौरन ध्यान जरूरी हैः न्यायिक सेवा और कानून लागू करने की प्रक्रिया में सुधार; प्रशासनिक सुधार; उपरोक्त “ठंडे स्थानों पर गर्म युद्ध” को ध्यान में रखते हुये रक्षा सुधार तथा युद्ध में कृत्रिम बौद्धिकता का उपयोग; गहरे और आपाद संवैधानिक संशोधन, जिसके लिये संविधान सभा जैसी व्यवस्था दरकार हो; चुनाव सुधार, जो बुनियाद में बैठे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाये; सभ्यता सम्बंधी कामों को दोबारा करना; भारत की अस्मिता के साथ भारत के पुनर्जागरण का एकीकरण और अंत में केंद्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विकेंद्रीकरण। इनमें से कुछ मुद्दे अन्यों की अपेक्षा भारतीय वैज्ञानिक क्रांति को ज्यादा प्रभावित करते हैं, लेकिन कोई भी गैर-जरूरी नहीं है।

अपने मौजूदा प्रशासनिक और प्रबंधन ढांचे को देखते हुये हम कैसे इस महत्त्वाकांक्षी सूची में दर्ज मामलों को पूरा करेंगे? प्रगति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है शिक्षा का उचित प्रबंधन। भारत की आजादी के बाद से जितनी भी सरकारें आईं, उन सबने सबको शिक्षा को सुगम बनाने का मार्ग बनाया। आईआईएससी, आईआईटी और आईआईएम जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों ने दुनिया के सामने यह झांकी पेश की कि भारत क्या-कुछ करने की क्षमता रखता है। इस सबके बावजूद हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक बनाने के लिये तथा उसके लिये आमूल अवसंरचना उपलब्ध कराने के लिये अभी बहुत-कुछ करने की जरूरत है। इस समय हमें पूरी तरह उत्कृष्टता को प्रोत्साहित करने की जरूरत है, यदि आवश्यक हुआ तो निजी विश्वविद्यालयों में। वैज्ञानिक उत्कृष्टता के अभाव में, गुणवत्ता व परिमाण की दृष्टि से हमें विकसित देश बनने का कोई मौका नहीं मिल सकता।

इस सम्बंध में, प्रथम चिंता निवेश की है। इस समय हम अपने सकल घरेलू उत्पाद का 0.8 प्रतिशत शिक्षा और अनुसंधान पर खर्च करते हैं। इस आंकड़े को बढ़ाने की जरूरत है, यानी वह सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 3-4 प्रतिशत तो हो। चीन ने 1990 के आसपास ही इस मद में भारी निवेश करना शुरू कर दिया था। इसका नतीजा आज सबके सामने है कि वहां फलता-फूलता वैज्ञानिक इको-सिस्टम मौजूद है। अपनी बहाल होती अर्थव्यवस्था को देखते हुये सरकार के भरोसे ही बैठ रहना, ठीक नहीं होगा। शिक्षा के क्षेत्र में निजी सेक्टर की भूमिका न केवल जरूरी है, बल्कि सजग नियमों के तहत उसे आगे भी बढ़ाना जरूरी है।

बहरहाल, एक और पक्ष भी है, जिस पर विचार करने की जरूरत है। एक बार फिर 25 वर्ष की छोटी सी अवधि को देखते हुये हम कह सकते हैं कि शिक्षा में जो भी बुनियादी बदलाव किया जायेगा, उसके नतीजे 15 वर्षों के बाद ही नजर आयेंगे। इसलिये हमें एक ऐसी रणनीति की फौरन जरूरत है, जो इस समय हमारे पास मौजूद संसाधनों के इस्तेमाल में वृद्धि कर सके। इस बीच, सरकार को भी वित्तपोषण, प्रवेश और प्रशासन के मामले में शिक्षण संस्थानों को चलाने के काम से दूरी बना लेनी चाहिये। केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों के बीच की असमानताओं को दूर करना होगा, क्योंकि छात्रों की एक बड़ी तादाद राज्य विश्वविद्यालों में ही पाई जाती है।

भारत का प्रौद्योगिकीय और अनुसंधान व विकास कार्य का बोझ अभियान-आधारित सरकारी प्रयोगशालाओं को वहन करना चाहिये और इनके जिम्मे शैक्षिक कार्य नहीं होना चाहिये। साथ ही कॉर्पोरेट अनुसंधान प्रयोगशालाओं को भी सरकारी प्रयोगशालाओं के साथ अनुबंध करके उपरोक्त काम पूरा करना चाहिये। आईआईटी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे वृद्धि, आर्थिक उपयोग तथा आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन की समस्याओं का समाधान करेंगे। उनकी गतिविधियां ज्यादा से ज्यादा अच्छे स्टार्ट-अप तक हो सकती हैं, लेकिन यह भी कोई बड़ा और बुनियादी कारनामा कर दिखाने के लिये अपर्याप्त होगा, जिसकी भारत-2047 को जरूरत है। अमेरिका 1950 के दशक की शुरूआत में वानेवर बुश के काम को तेजी से आगे बढ़ाने में सफल रहा। इसका कारण था अकादमिक जगत, उद्योग और सरकार तथा ज्यादातर उनकी रक्षा प्रयोगशालाओं के बीच सटीक तालमेल। चीन के असैन्य-सैन्य तालमेल के तहत भी यह रणनीति चलाई जा रही है। हमें किसी भी कीमत पर इससे कम नहीं रहना है।

परमाणु ऊर्जा विभाग इस बात की शानदार मिसाल है कि कैसे एक सरकारी वैज्ञानिक विभाग को संगठित करना चाहिये, जो शैक्षिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो। उल्लेखनीय है कि परमाणु हथियार बनाने के लिये आणविक सामग्री फिसाइल यू-235 जरूरी होती है। इसके लिये यूरेनियम अयस्क का आयात करना पड़ता है, जिसके लिये 1950 के दशक में हमारे ऊपर कठोर प्रतिबंध लगे थे। तब भारत ने अपने समुद्री किनारों की रेत में मौजूद मोनाजाइट से थोरियम निकालने का रास्ता तैयार कर लिया था। यूरेनियम की कम मात्रा में उपलब्धता की तुलना में दुनिया में भारत में सबसे ज्यादा थोरियम मिलता है। भारत ने तय किया है कि 2047 तक वह अपनी बिजली की मांग का 30 प्रतिशत हिस्सा थोरियम से पूरा करेगा। हमारा शस्त्र कार्यक्रम और ऊर्जा आवश्यकता के पास थोरियम प्रौद्योगिकी के रूप में अनुसंधान व विकास में हमारी प्रगति का मजबूत सहारा मौजूद है। यह सब इसलिये संभव हुआ क्योंकि परमाणु ऊर्जा विभाग को यह अनुमति दी गई थी कि वह खुद अपने वैज्ञानिकों (और बहुत छोटी संख्या में छात्र-कर्मचारियों) के समूह का सावधानीपूर्वक चयन करे। जरूरत इस बात की है कि यह प्रावधान समस्त गैर-शैक्षणिक वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं और संस्थानों पर लागू किया जाये, जिनके पास फौरन अपनाने योग्य प्रौद्योगिकियों, सामरिक सुरक्षा और उत्पादों व सेवाओं में विज्ञान के तीव्र निरूपण का दायित्व है।

कब, क्या और कैसे की परिभाषित करने के बाद अब जरूरत है राजनीतिक इच्छा-शक्ति की, ताकि इन बदलावों को आकार दिया जा सके। इसके आधार पर हम दुनिया में वास्तविक रूप से विकसित राष्ट्र के रूप में 2047 तक अपना सिर गर्व से ऊंचा कर पायेंगे।

हम इस आलेख की तैयारी में समय पर दिये गये सहयोग के लिये दीखित भट्टाचार्य को धन्यवाद देते हैं।

गौतम आर. देसिराजू इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, विज्ञान में सेवारत हैं और भारत सरकार के एस-20 इंगेजमेन्ट ग्रुप के सदस्य हैं।

शरण शेट्टी स्वराज्य के एसोशियेट संपादक हैं।