शिक्षा के नये आयाम गढ़ेगी नयी शिक्षा नीति-डॉ. अनुपमा कुमारी

हाल ही में केंद्र सरकार ने नयी शिक्षा नीति का नया प्रारूप सार्वजनिक किया है. इस प्रारूप के सामने आते ही राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा है. देश के सर्वांगिण विकास के लिए,हुमैन रिसोर्स को अपनी मूल पूंजी बनाने के लिए और भारतीय मूल्यों व परंपराओं से युक्त नया भारत गढ़ने के लिए नयी शिक्षा नीति की दरकार वर्षों से थी, इसलिए इसके प्रारूप के सामने आने पर देशव्यापी चर्चा स्वाभाविक है.
इस नयी शिक्षा नीति में क्या खास है और कैसे यह लागू होने पर भारत को एक नयी दिशा में मोड़कर, सुनहरे भविष्य को गढ़नेवाला होगा, इस पर बात करने के पहले हम यह जान लें कि शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के लिए पहले भी कुछ कोशिशें होती रही हैं. तीन आयोग बने. राधाकृष्णन आयोग, आचार्य राममूर्ति आयोग और कस्तूरीरंगन आयोग. इनमें कस्तूरीरंगन आयोग पहला आयोग रहा, जिसका रूप—स्वरूप अलग रहा. प्रणाली अलग रही. यह पहला आयोग है, जिसमें शिक्षा से जुड़े हर व्यक्ति को अपने सुझाव देने का अवसर दिया गया. साथ ही विद्यार्थी, अभिभावक, अध्यापक से लेकर प्रमुख शिक्षाविद्, शिक्षा विशेषज्ञ, पूर्व शिक्षा मंत्रियों और सभी राजनीतिक दलों के नेता,संसद के सभी सांसदों और संसद की स्टैंडिंग कमेटी आदि की राय—सलाह लेने मकसद प्राथमिकता के साथ रखा गया. इसे दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि पूरी व्यवस्थित तैयारी के साथ इसे तैयार किया गया और पारदर्शिता बरतते हुए लगभग 66 पन्ने (हिंदी में 117 पन्ने) की नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी गई. उसे सार्वजनिक किया गया.

इस नयी शिक्षा नीति के सामने आते ही शैक्षणिक और अकादमीक जगत में आकांक्षाएं,उम्मीदें हिलोर मार रही हैं. इस नीति के प्रारूप और तथ्यों को देखकर यह माना जा रहा है कि आनेवाले समय में भारतीय शिक्षा जगत और शैक्षणिक प्रणाली में सुखद बदलाव होंगे, जिसका लाभ भविष्य के भारत को और सुंदर, समृद्ध बनाने में होगा.

इसके पहले 1986 में शिक्षा नीति आयी थी, जिसे 1992 में संशोधित किया गया था. यानी लगभग 34 वर्षो के अंतराल के बाद यह तीसरी शैक्षिक नीति आयी है, जिसका उद्देश्य भारतीय शिक्षा की संरचना को गतिशील और प्रासंगिक बनाना है. इस शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं. यदि ये बदलाव सफलतापूर्वक लागू किए जाते हैं, तो इससे न सिर्फ भारत में शैक्षणिक स्थिति में सुधार होगा, बल्कि शिक्षा और ज्ञान के मेल से भारत अपने देश में और पूरी दुनिया में भी संभावनाओं के नये द्वार खोलने में सक्षम होगा.

आखिर क्या है इस शिक्षा नीति में खास और क्यों इसे इतना महत्वपूर्ण माना जा रहा है, इसे जानने—समझने के लिए सबसे पहले इसके कुछ सकारात्मक पहलुओं पर बात करते हैं. इस नयी शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा की बात करें तो यह स्कूली शिक्षा के मूलभूत ढांचे में बड़े परिवर्तन की वकालत करता है. 10+2 के स्थान पर स्कूली शिक्षा प्रणाली को 5+3+3+4 के रूप में बदला गया है, जो एक क्रांतिकारी बदलाव की तरह होगा. इसे भी अलग—अलग खाके में विभाजित किया गया है. पहले पांच साल को अर्ली—चाइल्डहुड—पॉलिसी का नाम दिया गया है. इसके अनुसार तीन से छह वर्ष के बच्चों को भी स्कूली शिक्षा दी जाएगी. फिलहाल तीन से पांच वर्ष की बजाय पांच या छह साल के बच्चे 10 + 2 वाले स्कूली शिक्षा प्रणाली में शामिल हैं.

 

हालांकि इन छोटे बच्चों के प्री—स्कूलिंग के लिए सरकारों ने आंगनबाड़ी की पहले से व्यवस्था की थी, लेकिन इस ढांचे को और मजबूत किया जाएगा. अब (Early Childhood Care and Education -ECCE) मजबूत बुनियाद देगा. शिक्षा के अधिकार (RTE) का दायरा बढेगा. पहले यह 6 से 14 साल के बच्चों के लिए था, जो अब 3 से 18 साल के बच्चों के लिए होगा. सरकार ने इसके साथ ही स्कूली शिक्षा में 2030 तक नामांकन अनुपात यानी ग्रास इनरोलमेंट रेशियो (जीईआर) को 100 प्रतिशत और उच्च शिक्षा में इसे 50 प्रतिशत तक करने का लक्ष्य रखा है. ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक 2017-18 में भारत का उच्च शिक्षा में जीईआर 27.4 प्रतिशत था, जिसे अगले 15 सालों में दोगुना करने का लक्ष्य सरकार ने रखा है. 5+3+3+4 के प्रारूप में पहला पांच साल बच्चा प्री स्कूल और कक्षा 1 और 2 में पढ़ेगा, इन्हें मिलाकर पांच साल पूरे हो जाएंगे. इसके बाद 8 साल से 11 साल की उम्र में आगे की तीन कक्षाओं कक्षा-3, 4 और 5 की पढ़ाई होगी. इसके बाद 11 से 14 साल की उम्र में कक्षा 6, 7 और 8 की पढ़ाई होगी. इसके बाद 14 से 18 साल की उम्र में छात्र 9वीं से 12वीं तक की पढ़ाई कर सकेंगे. यह 9वीं से 12वीं तक की पढ़ाई बोर्ड आधारित होगी. यह सेमेस्टर के आधार पर होगा.

अगर इस पैटर्न को बारिकी से समझें तो पहला लाभ तो यही दिखेगा कि इसे लागू होने पर बच्चे रट्टा मार कुछ भी याद करने की बजाय पढ़ने, सिखने, जानने पर ज्यादा जोर देंगे. दूसरा यह कि इस प्रक्रिया के लागू होने से बच्चों पर परीक्षा का बोझ कम होगा. इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इस नयी शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी की बजाय’मातृभाषा’ में शिक्षा पर जोर दिया गया है. यह एक फैसला है, जिसे सामने आते ही पूरे देश में इसका स्वागत हर वर्ग ने दिल खोलकर किया. आजादी के बाद से ही हुई एक बड़ी भूल को सुधारने का प्रयास है यह. पूरी दुनिया में मातृभाषाओं पर जोर है और यह माना जाता है कि मातृभाषाओं में सिखनेवाले बच्चे जल्दी सिखते हैं और उनका ज्ञान ठोस होता है.

 

अब अगर आगे की बात करें तो एक खास बात यह भी है कि इसमें विज्ञान, कला, वाणिज्य आदि संकाय नहीं होंगे यानी बहुआयामी शिक्षा की व्यवस्था और स्वायत्तता होगी. मल्टी-डिसिप्लिन एजुकेशनव रिसर्च को इससे बढ़ावा मिलेगा. उच्च शिक्षा संस्थान और व्यावसायिक शिक्षा संस्थान विभिन्न वैकल्पिक पाठ्यक्रमों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में सीखने के अवसर प्रदान करने वाले समग्र संगठन के रूप में विकसित हो पाएंगे. इंटर्नशिप और वोकेशनल लर्निंग से हर छात्र एक विधा में अपना कौशल हासिल कर पायेगा, जिससे अगर बीच में पढाई छूटती भी है तो वह रोजगार कर सकेगा. ग्रेजुएशन में भी एक साल में डिप्लोमा, 2 साल में एडवांस डिप्लोमा और फिर डिग्री की व्यवस्था होगी. एमफिल को समाप्त कर दिया गया है. अब सीधे पी-एच.डी में छात्र प्रवेश ले पाएंगे. यानी ग्लोबल शिक्षा को महत्त्व दिया गया है. विदेशों में ऐसी ही व्यवस्था है.

वर्तमान डिग्री प्रोग्राम लंबी अवधि के हैं, जिस कारण कई छात्र वित्तीय संकट या दूसरे कारणों से पढ़ाई छोड़ देते हैं. उनके लिए वित्तीय क्रेडिट कार्ड की व्यवस्था की गयी है. कुछ लोगों का मानना है कि इससे शिक्षा महंगी हो जाएगी.
इस नयी शिक्षा नीति में आंतरिक और वाह्य, दोनों सिस्टम को मजबूत करने पर जोर दिया गया है. इसके तहत टॉप 100 विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसरों को स्थापित करने की अनुमति भी देने की बात है. सही मायनों में देखा जाए तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति बंधन मुक्त शिक्षा को प्रासंगिक बनाती है.

हालांकि यह नीति तो अब सामने आयी है लेकिन इसे बनने में एक तिथि 29 सितम्बर, 2018 का विशेष महत्व जब दिल्ली में देश की शीर्ष शैक्षणिक संस्थाओं ने रिसर्च फॉ ररिसर्जेन्स की अगुवाई में तथा भारतीय मनीषा के प्रखर चिंतक व् वरिष्ठ पत्रकार, पद्मश्री रामबहादुर राय की अध्यक्षता में ‘‘एज्युकेशन फॉर रिसर्जेन्स’’ सम्मेलन आयोजित किया गया था. जिसमें यूजीसी, एआईसीटीई, आईसीएसएसआर समेत कई प्रमुख संस्थाएं आयोजक की भूमिका में थी और देश के 400 कुलपतियों सहित एक हजार वरिष्ठ शिक्षाविदों ने भाग लिया था. माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से रामबहादुर राय ने इसे शिक्षा पर आयोजित ‘‘उपनिषद’’ की संज्ञा देते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर पुन: शिक्षा मंत्रालय करने का सुझाव दिया और इसे मान लिया गया.

इस नयी नीति के तहत नेशनल रिसर्च फाउंडेशनके अंतर्गत उच्च शिक्षा में अनुसंधान को नई गति मिलेगी और शोध कार्य समाजोपयोगी, उद्देश्यपूर्ण और परिणामकारी होंगे. शिक्षा मद में सरकार के व्यय को जीडीपी के 6 प्रतिशत तक बढ़ाया जाना चाहिये. इस बात का संज्ञान लेते हुए नीति में समुचित आर्थिक व्यवस्था की बात भी की गयी है. नयी शिक्षा नीति से वैश्विकता को बल मिलेगा,गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बल मिलेगा,पारदर्शी व्यवस्था होगी और जो MCI, ICAR, BCI, NCTE जैसी संस्थाएं वर्तमान शिक्षा क्षेत्र के व्यापार और भ्रष्टाचार का केंद्र बनती जा रही थीं उन पर नियंत्रण होगा.रचनात्मकता, कला और संस्कृति,स्वायत्तता, सहभागिता और सकारात्मकता को बल मिलेगा. ISER, NISER , IILA, IITI बनने से समृद्ध भारत की नीव पड़ेगी. हालांकि इस नीति में कुछ खामियां भी हैं, जिसे दूर कर लेने से यह युगांतरकारी साबित होगा. कुल मिलाकर कहें यह कहा जा सकता है कि यह युग ज्ञानयुग है. शिक्षा और ज्ञान के मेल से ही समग्रता में मानव विकास संभव है. नयी शिक्षा नीति सिर्फ शिक्षित करने, डिग्री देने की बजाय ज्ञानवान बनाने पर जोर देता है.

डॉ. अनुपमा कुमारी, सहायक प्राध्यापक, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग,
गुरू घासीदास विश्वविद्यालय,बिलासपुर