श्रमिकों एवं कामगारों की पलायन की त्रासदी…

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां असंगठित क्षेत्र में 80% से ज्यादा लोग काम करते हैं। कोरोना संकट से देश गुजर रहा है। इस संकट से बचने के लिए देशव्यापी लॉक डाउन की घोषणा माननीय प्रधानमंत्री ने मन की बात कार्यक्रम के द्वारा की तथा इस संकट से दो-चार हो रहे लोगों से माफी मांग कर अपने बड़प्पन का परिचय दिया।

आज की स्थिति में भारत सरकार के पास लॉक डाउन ही संकट से निपटने का एकमात्र विकल्प था। इसलिए यह अनिवार्य हो गया की लॉक डाउन में कानून की शक्ति है। इस विश्वव्यापी संकट से निपटने के लिए घर में ही रहना आवश्यक है। चाणक्य कहते हैं कि यदि शत्रु अदृश्य हो तो छुप जाने में ही भलाई है। भारत की जनसंख्या विशाल है। लेकिन स्वास्थ्य संसाधन से ये एक कमजोर देश है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू एच ओ) के कार्यकारी निदेशक माइकल जे रेयान ने वकालत किया है कि भारत के पास कोरोना से लड़ने की क्षमता है। माइकल को विश्वास है कि भारत अपनी तैयारियों से कोरोना से बचने में सफल होगा।

इस समय विश्व के 185 देश कोरोना महामारी से प्रभावित हैं। ऐसी स्थिति में भारत में पलायन की त्रासदी की समस्या उत्पन्न हो गई है। शायद यह अनुमान हमारी सरकार को नहीं थी। सरकार ने इसकी तैयारियां भी नहीं की। अचानक एक तरफ लॉक डाउन नीति और दूसरी तरफ महानगरों से एक बड़ी संख्या में लोग अपने गांव के लिए निकल पड़े। माननीय प्रधानमंत्री की घोषणा के बावजूद भी पलायन बढ़ता जा रहा है। बिहारी मजदूर के पैर रुक नहीं रहे हैं। सरकार के सामने अचानक यह एक चुनौती बन गई की इन मजदूरों को राहत देने के साथ ही उनके बीच कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से कैसे रोका जाए? बिहार सरकार इस संकट से निपटने के लिए तत्पर है। सरकार कमजोर वर्ग के लोगों को सुरक्षित ठिकानों पर ठहराने और उनके खाने-पीने की उचित व्यवस्था करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। समाज के मजबूत वर्ग भी इस व्यवस्था में अपना योगदान बढ़-चढ़ कर दे रहे हैं। करीब-करीब यही स्थिति अन्य शहरों में भी है।

विश्व के इतिहास में अपने ढंग की यह पहली आपदा है। इस आपदा ने अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया है। देशव्यापी लॉक डाउन से भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव पड़ा है। देशभर में लॉक डाउन के बाद काफी लोग अपने घरों की ओर पैदल लौट रहे हैं। पूरे भारत में एक चर्चा का विषय है कि मजदूरों कामगारों की भीड़ वापस गांव आ रही है। पहली बार एहसास हो रहा है कि देश के इतने लोग रोजी-रोटी के लिए अपना घर-बार छोड़कर कहीं और रहते हैं। बहुत लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि इन्हें शहर छोड़कर जाने की क्या जरूरत है। आज की स्थिति में कामकाजी मजदूरों की स्थिति दयनीय है। शहरों में रहने वाले मजदूर वर्ग ना तो शहर के हो सके और न गांव के। सामाजिक स्तर पर वह हमेशा हाशिए पर ही रहे। इसलिए मजदूरों में भी शहरों के प्रति कोई लगाव नहीं हो सका। वे आर्थिक तंगी के कारण शहर में रहते हैं। लेकिन उनका मन अपने गांव में ही लगा रहता है। दिल्ली में बिहारी ऑटो रिक्शा वाला का बाहुल्य है। एक ऑटो रिक्शा वाले से मैंने पूछा की आप कहां के रहने वाले हो। उसने जवाब दिया कि मैं बिहार के मधेपुरा जिला से आता हूं। यहां मैं अपने पिताजी और दो भाइयों के साथ रहता हूं। सभी ऑटो रिक्शा ही चलाते हैं और पैसे कमा कर गांव में जमीन खरीदते हैं। यहां इसलिए रहते हैं कि यहां काम है। इससे यह स्पष्ट है कि बड़े शहरों में मजदूर वर्ग का संबंध काम से रहता है। लॉक डाउन के बाद इनके सामने यह परेशानी है कि इनका काम बंद हो गया है तो वे किस तरह यहां गुजारा करें?

दिल्ली यूपी बॉर्डर पर हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ किसी तरह अपने घरों तक पहुंचना चाहती है। इकोनॉमिक्स टाइम्स की एक रिपोर्ट में देखा गया है कि नेपाल-चीन बॉर्डर से लगा उत्तराखंड का पहाड़ी जिला पिथौरागढ़ भी इससे अछूता नहीं है। यहां मजदूरी के लिए आए लोग भी गांव के लिए रवाना हो गए हैं। पिथौरागढ़ शहर में भी बिहार-उत्तर प्रदेश से आए करीब 4 हजार मजदूर हैं। सभी के रहने एवं खाने की व्यवस्था पिथौरागढ़ के जिला अधिकारी के द्वारा किया गया है। लॉक डाउन के कारण हिमाचल प्रदेश में 4 लाख प्रवासी कामगार फंसे हुए हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार सोलन के औद्योगिक क्षेत्र वी वी एन मैं करीब 2 लाख कामगार अपने घरों को नहीं लौट पा रहे हैं। वर्तमान में पूरे देश में प्रवासी मजदूरों के बीच गांव वापस जाने की होड़ लगी है। यह कोरोना का प्रभाव ही है। तेलंगाना राज्य के अकेले हैदराबाद शहर में 10 लाख से ज्यादा मजदूर दूसरे राज्यों के काम करते हैं। इनमें से हजारों को अपने घर जाते देखा जा रहा है। इसी तरह बंगाल में भी सैकड़ों मजदूर घर लौट रहे हैं। असम के कोकराझार इलाके में रहने वाले 400 मजदूर वहां फंसे हुए हैं। यह सभी असम और मेघालय के रहने वाले हैं। दिल्ली-उत्तर प्रदेश और दिल्ली-हरियाणा की तरह आंध्र प्रदेश-कर्नाटक, आंध्र प्रदेश-तेलंगाना, आंध्र प्रदेश-तमिलनाडु तथा तेलंगाना-महाराष्ट्र सीमा पर भी भारी संख्या में मजदूर अपने अपने गांव जाने के लिए भीड़ लगा रखे हैं। रोजगार की तलाश में एक दूसरे राज्यों में जाना लोगों की मजबूरी है। 2017 के आर्थिक सर्वे का अध्ययन बताता है कि 2011 से 2016 के बीच सालाना 90 लाख लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में गए और आज कोरोना संकट में लोगों का गांव लौटना एक खतरे की आशंका जगाता है।

सत्य तो यह है कि सरकार के पास कामकाजी मजदूरों का कोई आंकड़ा नहीं है। वर्तमान आर्थिक सर्वे के अनुसार इनकी संख्या असंगठित क्षेत्र में कुल 45 करोड़ मजदूरों का 20 प्रतिशत यानी 9 करोड़ है। इनमें से अधिकांश लोग शहरों में मकान, सड़क निर्माण कार्य और रिक्शा चलाने में लगे हुए हैं। इन मजदूरों में गरीबी व्याप्त है, भूख का डर एवं कोरोना वायरस की त्रासदी सता रही है।

कोरोना महामारी में दुनिया की अर्थव्यवस्था को जड़ से हिला दिया है। स्पष्ट है कि इससे सबसे ज्यादा असर गरीबों एवं मजदूरों पर पड़ा है। निसंदेह सरकार के द्वारा इस महामारी से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर तैयारियां की गई हैं। लेकिन सरकार के सामने कई प्रश्न एक साथ उठ खड़े हुए हैं। आज इन मजदूरों से जुड़े प्रश्न है – मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा। यह इस बात का संकेत है कि आजादी के 70 सालों के बाद भी समाज के एक वर्ग को सामाजिक सुरक्षा नहीं मिली है। भारत के लिए दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक अवसरवादिता ने इस दिशा में कभी गंभीरता से चिंतन ही नहीं किया है। लेकिन आज की स्थिति भिन्न है। आज तो इस महामारी से मुकाबला करना है। सरकार के साथ-साथ पूंजीपतियों को भी गरीबों एवं मजदूरों के साथ खड़े रहने की आवश्यकता है। सरकार ने इस महामारी से निपटने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, जो स्वागत योग्य हैं। कोरोना से देश में आर्थिक मंदी उत्पन्न हो गई है। ऐसी स्थिति में सरकार को नीतिगत निर्णय लेने की आवश्यकता है। श्रमिकों एवं कामगारों के पलायन को रोकने की नीति बनाने की आवश्यकता है। फिलवक्त भारत को क्वॉरेंटाइन की औषधि की जरूरत है।