‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष’: सामाजिक स्वास्थ्य के लिए जरुरी है महिलाओं का पूर्ण सशक्तिकरण

‘‘माता पृथ्वी पुत्रोंऽ हम’’-कहते हैं। अर्थात् जिस धरती पर जन्म लिया वह माता स्त्री ही है। स्त्री की महिमा वेद पुराण, लोक तथा समाज सदा बखानते रहे हैं। क्यों न बखाने? जन्म देती है, पोषण करती है। लेकिन जैसे पतझड़ आता है, पेड़ पौधे पत्र विहीन हो जाते हैं, नंगे बूझे निःसहाय से लगते हैं धरती पुत्र, धरती पीत पत्रों से अँटी पड़ी होती है वैसे ही मानो स्त्रियों की स्थिति का पतझड़ आ गया। उनकी हरियाली ही छिन गई। यह पतझड़ का मौसम बहुत दिनों तक चला। स्त्रियों को पहले घर बैठा दिया, फिर रसातल में पहुँचा दिया। वर्ग और वर्ण विभेद दुनिया भर में शुरू हो चुका था। स्त्रियाँ प्रत्येक वर्ग में दोयम दर्जे की हो गईं। चीन वगैरह देश में सम्पन्न घरों की स्त्रियों के पैरों में जन्म से ही छोटे जूते पहनाकर पैर बढ़ने न दिये। उसके कारण वे चल फिर नहीं सकती ठीक से, भारत तथा अरब देशों में स्त्रियों की असूर्यम्पश्या बना दिया गया।

स्त्रियों का वेतन मजदूरी पुरूष मजदूर से आधा

मजदूर वर्ग की स्त्रियों का वेतन मजदूरी पुरूष मजदूर से आधा होता। हजारों साल यह क्रम चला। परन्तु इतिहास इतना भी खामोश नहीं होता कि सदा के लिये मनुष्य चेतनाशून्य हो जाय। स्त्री भी मनुष्य है। यह भान होते ही वह तनकर खड़ी हो गई। संघर्ष शुरू हो गया। बलिदारी स्त्रियों के कारण जीत हुई। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस उसी जीत का जश्न का दिन है। स्त्रियों को पंख मिले, अधिकर मिले। तभी आज हम सशक्त हैं। खेत में धान रोपने से लेकर हम रेलगाड़ी, बसें और हवाई जहाज उड़ाती हैं। हम स्त्रियाँ फिटर, जम्बर हैं, ऑटोरिक्शा चलाती हैं और अंतरिक्ष तक जाती हैं। अब स्त्री सशक्त है। आंतरिक सुरक्षा का भार उठाने को पुलिस में हैं तो सीमा की सुरक्षा के लिए सेना में हैं।

‘आज भी बेटी का जन्म अभिशाप’

परंतु क्या हम अपनी पूरी दुनिया बदल पाये? स्त्री सशक्त हुई है पर समाज अशक्त है। आज भी दहेज का दानव डैने पसारकर अंधकार सृजित कर रहा है। आज भी बहुएँ जलाई जाती हैं। आज भी बेटी का जन्म अभिशाप माना जा रहा है। ऐसे में सशक्त है इस पर प्रश्न चिन्ह् लगा है। स्त्री हिंसा गर्भ से ही शुरू हो जाती है। बलात्कार का दानव सर उठाये लीलने को तैयार बैठा है। ऐसे में हम स्त्री को कितने दिनों तक शक्तिमती देख पायेंगे? परंतु जागरण हो चुका है। स्त्री एक जाग्रत ज्योति है, उसने अपने आप को खोज लिया है। बहनापा की दृढ़ता आ गई है। दूसरों द्वारा किये गये पापों की उत्तरदायी वह होने को तैयार नहीं है। हिंसा की शिकार वह होती है उसमें उसका कोई दोष नहीं है तो दोषी वह क्यों अपने आप को माने?

मन के हारे हर है

मन के जीवे जीत

स्त्री मन से जीत गई है। इस महिला दिवस पर जो जमात दिख रही है वह सभी शक्तिमती है, धैर्यवान है। आत्माभिमान से लैस है, कर्मठ है। आत्मग्लानि के भाव को झटककर दूर कर चुकी है।

इस महिला दिवस के दिन हम आशा करते हैं कि दुनिया भर की महिलायें बहनापा की एक कड़ी बनायें प्रकृति के पतझड़ को नवमुकुलन से आच्छादित करने का उपक्रम करें। तभी प्रकृति की सुंदरता लौटेगी। तभी बचेगी पृथ्वी। पृथ्वी और नारी एकमेव है। उसे विश्व महिला दिवस की बधाई। आमीन!!

पारिवारिक और सामाजिक बहिष्कार करें

यह बधाई हमें तब तक नहीं चाहिए जबतक हमारी स्थिति पूरी तरह न सुधरे। नारी की गरिमा का गीत गाते गाते हम उसकी वास्तविक स्थिति को भूल जाते हैं। ट्रक चलाने वाले स्त्री के हाथ जबर्दस्ती करने वाले पुरूष से क्यों हार जाते हैं? हमें यदि एक नया संसार बना डालना है तब इस अहम विषय पर विचार करना होगा। महिला दिवस पर सबसे पहले यह संकल्प लेना होगा कि पूरे समाज को कैसे जागरूक करें। अक्सर स्त्रियों को नहीं पता होता कि वे स्वयं अपनी बेटियों को दोयम दर्जा का होने का भान कराती हैं। बेटे को ऊपर समझती हैं। पढ़ी लिखी समझदार स्त्रियाँ भी इसी कंडिशनिंग से गुजरती हैं। प्रकृति ने स्त्री की संरचना माँ बनने के लिए की है यह सौभाग्य प्रायः दुर्भाग्य बनकर उभर आता है। समाज की स्त्रियाँ अगर चाहें तो इस स्थिति से स्त्रियों को स्वयं ही उबार लें। अपने घर के पुरूषों को सुधारने की दिशा में एकजुट हो जायें। घर के बलात्कारी को प्रश्रय न दें, संरक्षण न दें उन्हें सबक सिखायें। पारिवारिक और सामाजिक बहिष्कार करें। यह फाँसी की सजा से भी अधिक कारगर उपाय होगा।

स्त्रियों की भ्रूण हत्या से निपटने के लिए मात्र सरकारी प्रयास काफी नहीं है। घरों में मानसिकता बदलने की जरूरत है। कई स्थान पर भ्रूणहत्या के कारण जेन्डर इम्बैलेंस शुरू हो चुका है। यह तो सामाजिक स्वास्थ्य के लिए अधिक कठिन स्थिति है। यदि स्त्री स्वयं मजबूत हो जायगी तक सब ठीक हो सकता है। स्त्री अब

‘‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी

आँचल में है दूध और आँखों में पानी’’

की स्थिति से कब का उबर चुकी है। वह अपने को पहचान रही है। ऐसे में कोई भी सुधार कारगर हो सकता है। जरूरत है वातानुकूलित हॉल से निकल कर यह बहस, बहसों का सारांश, उसकी उपयोगिता सरजमीन पर आये। गाँव गाँव में कस्बे कस्बे में स्त्री उतनी ही समझदार हो, सशक्त हो जितनी यू॰एन॰ के झंडे तले बैठी स्त्री है। झंडे तले बैठी स्त्री को यदि गाँव कस्बों की स्त्रियों की समझदारी पर शक्ति पर गर्व हो तभी यह सचमुच की मानी जायगी।

स्वयंसिद्धा।

लेखिका- -डॉ. उषाकिरण खान,  पद्मश्री और सुप्रसिद्ध साहित्यकार