आगा खां परिवार की बेटियां…

आगा अपने व्यक्तिगत जीवन में भी एक बहुत ही प्रगतिशील इंसान और औरतों की शिक्षा के सच्चे समर्थक थे। उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को सर्वोत्तम शिक्षा और परवरिश मुहैया करवाई। उनकी बड़ी बेटी बेगम सुलतान तमाम भारतीय उपमहादेश की सबसे पहली मुसलमान औरत थीं, जो ग्रैजुएट बनीं।उनकी छोटी बेटी बेगम सकीना भी बहुत मेधावी थी, जो 1920 के दशक में बीए और एमए दोनों ही परीक्षाओं में फर्स्ट क्लास से उत्तीर्ण हुई और भारतीय मुसलमान महिला के तौर पर लॉ की भी डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट में पेशेवर वकील की हैसियत से अपने स्वतंत्र करियर की नींव रखी। वह शुरुआत से ही सामाजिक या आर्थिक कारणों से पीड़ित महिलाओं के हक़ के लिए लड़ती रहीं।

अनोखी बेगम सकीना

वक़ालत के साथ-साथ सकीना को समकालीन साहित्य और राजनीति में भी गहरी रुचि थी। अपनी मातृभाषा के अलावा उन्हें और भी कई भाषाओं का ज्ञान था। जैसे उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा लगाव था बांग्ला भाषा से। उस वक़्त की मशहूर बांग्ला उदारवादी पत्रिका ‘सौगात’ की वह एक नियमित लेखिका रहीं। 1930 में ‘मुस्लिम समाज में नारी शिक्षा’ शीर्षक एक अपने एक निबंध में उन्होंने सदियों से मुसलमान समाज में महिलाओं पर चल रही अनेक रोकटोक पर सीधा सवाल उठाया। इस निर्भीक लेख में सकीना ने महिलाओं को रूढ़िवादी रीति-रिवाज़ों को तोड़कर शिक्षा और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्वाबलंबन के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए से दृढ़ता से आवाज़ दी थी।

मज़दूरों की ऐसी दुखद स्थिति को संवेदनशील बेगम सकीना सहन नहीं कर पाई और उन्होंने अपनी काउंसिलर की सीमित क्षमता के भीतर ही बेरोज़गार मजदूरों के लिए रोज़गार के दूसरे विकल्प खोजे और सब के लिए मुफ्त शिक्षा और चिकित्सा सुविधा मुहैया करवाने जैसे सामाजिक काम शुरू किए। धीरे-धीरे वे अपना पूरा समय श्रमिकों की झोपड़ियों में उनके साथ ही बिताने लगीं। उनके सेवा कार्यों में सबसे आगे बढ़कर साथ दिया मज़दूर परिवार की महिलाओं ने जिनके लिए भी वह वैकल्पिक आय की तलाश करने लगी थीं।

कम्युनिस्ट श्रमिक आंदोलन और सफाईकर्मी

1920 के दशक से कलकत्ता में कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रसार के चलते धीरे-धीरे छवि कुछ बदलने लगी थी। सदियों से शोषण सहन करने के आदि इन सर्वहारा सफाई श्रमिकों को पहली बार अपने राजनीतिक, आर्थिक और बाक़ी मानवाधिकारों के लिए सचेत और एकजुट किया कम्युनिस्ट नेता प्रभावती दासगुप्ता ने। उन्होंने सन् 1927 में सफाई कर्मचारियों का पहला ट्रेड यूनियन बनाकर इनके अधिकारों के लिए सरकार से लड़ना शुरू किया। साल 1928 में सैकड़ों सफाई कर्मचारियों ने उनके नेतृत्व में अपनी पहली हड़ताल को सफल किया। प्रभावती की पहल के बाद इनकी मांगों पर आंदोलन चलता तो रहा पर पूरे एक दशक के बाद भी सरकार की ओर से उनकी दुर्दशा में सुधार का कोई प्रयास नहीं किया गया। उल्टा 1939 में शुरू हुए दूसरे विश्वयुद्ध के चलते, सफाई कर्मचारियों के अलावा कॉर्पोरेशन के बाकी सारे डिपार्टमेंट के कर्मचारियों की तनख्वाह में बढ़ोतरी की गई। इधर युद्धकाल की बढ़ती महंगाई, कम तनख्वाह, खान-पान की ज़रूरी चीज़ों की किल्लत, मालिक और ठेकेदारों द्वारा अंधाधुंध बर्खास्तगी की वजह से बढ़ती हुई बेरोज़गारी और ग़रीबी ने पहले से ही हालात के मारे सफाईकर्मी, रिक्शावाला, मज़दूर सहित शहर के कारखानों में रोज़ी-रोटी कमानेवाले अनगिनत श्रमिकों की आस जलाई और उनके श्रमिक साथियों के पास प्रत्यक्ष आंदोलन शुरू करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। 1940 कि 26 मार्च से बेगम सकीना और बाकी कम्युनिस्ट नेताओं के नेतृत्व में शुरआत हुई सफाई कर्मचारियों की सबसे बड़ी हड़ताल की। पूरे शहर के 25 हज़ार से अधिक सफाई श्रमिकों ने शहर की साफ-सफ़ाई का काम बंद कर दिया। उनकी मुहिम के साथ जल्द ही शामिल हो गए कलकत्ता कॉर्पोरेशन और आसपास के सभी जूट कारखानों और दूसरे क्षेत्र के श्रमिक भी। 26 मार्च से 2 अप्रैल तक शहर के हर ओर हज़ारों श्रमिकों के की हड़ताल जारी रही, जिसका पैमाना दिन-ब-दिन बढ़ता ही रहा था।

यह बेशक़ शर्म की बात है कि मजदूरों के लिए उनकी लड़ाई और जीवनभर के अनगिनत सेवाकार्यों के ऐतिहासिक तथ्यों को न्यूनतम तरीके से भी संरक्षित नहीं किया गया, ना ही हमेशा से प्रचार से अलग रहीं बेगम सकीना ने अपनी कोई आत्मकथा लिखी थी। यहां तक कि उनकी एक तस्वीर को भी उनके समकालीन किसी ने संजोकर नहीं रखा।

एक ओर शहर की स्थिति को सुधारना और दूसरी ओर श्रमिकों की एकता और दृढ़ता से चिंतित ब्रिटिश सरकार अब हरकत में आई। कई जगहों पर आंदोलनकारियों की मीटिंग और रैलियों पर पुलिस की ओर से लाठीचार्ज किया गया, गिरफ्तारियां हुई, यहां तक कि गोली भी चलाई गई जिससे कई श्रमिक घायल हुए। सरकार की सख़्ती से मजदूर भड़क उठे और उनकी शांतिपूर्ण हड़ताल अब हिंसक रूप लेने लगी। स्थिति की गंभीरता और सफाई मजदूरों की मांगों को उचित को समझते हुए किसान नेता सहजानंद सरस्वती ने सुभाषचंद्र बोस से श्रमिकों की न्यायसंगत मांग तथा अधिकारों को मान्यता देने का अनुरोध किया। तब सुभाषचंद्र इस मुद्दे पर सक्रिय हुए। बेगम सकीना सहित मज़दूर प्रतिनिधियों के साथ मंहगाई भत्ता को ले कर की गई एक महत्वपूर्ण बैठक में 3 अप्रैल से उन्हें कॉर्पोरेशन के दूसरे कर्मचारियों के साथ महगांई भत्ता देने की बात तय हुई। हालांकि सकीना जानती थीं, यह अधिकारों की लड़ाई अभी बस शुरू ही हुई है। आगे भी आंदोलन को जारी रखने के लिए उन्होंने अपने नेतृत्व में ‘कलकत्ता कॉर्पोरेशन सफाई श्रमिक यूनियन’ की नींव रखी, जिसके शुरुआती सदस्य बने शहर के विभिन्न क्षेत्र के 10 हज़ार मज़दूर। राजनीति के बाहर भी बेगम सकीना का पूरा समय पहले जैसे ही झुग्गियों में रहनेवाले श्रमिक परिवारों के देखभाल में बीता करता था। यहां तक कि उनका अपना मिडल रोड स्थित घर, जो कि अब ‘सफाई श्रमिक यूनियन’ का मुख्य दफ्तर बन चुका था, उसका दरवाज़ा भी 24 घंटे मज़दूरों के लिए खुला रहता था, जहां आंदोलनरत या फिर भूखे मजदूरों को दो वक़्त का खाना और रात में रहने की एक जगह मिल जाया करती थी।

मालिक-मज़दूर, अमीर- गरीब जैसी विपरीत सामाजिक श्रेणियों में टकराव के बदले इन सभी में सूझबूझ और शांति से बनी एक समन्वयवादी यूटोपियन समाज का गठन और कम्युनिज़्म के सामाजिक और आर्थिक समानता के आदर्शों में विश्वास रखनेवाली सकीना कम्युनिस्ट आंदोलन और नेताओं के साथ होते हुए भी उनकी श्रेणी संग्राम सहित कई दूसरे कट्टर मतवाद के साथ सहमत नहीं होती थी। फिर भी अपने जान से प्यारे मजदूरों को उनका जन्मसिद्ध हक़ दिलाना और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत से उखाड़ फेंकने के दोहरे लक्ष्य से सकीना ने कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ खुद को जोड़ा था।