‘बागमती के किनारे बसे गांव में फिर बाढ़ का खौफ मंडरा रहा है। लोगों की आंखें भींगी है। फिर घर-द्वार छोड़ बांध पर पनाह लेने की नौबत आयेगी। बागमती के धार में फिर सपने बह जाएंगे। कभी दाहर से लेकर बाढ़ तक के बदलते स्वरूप और नदियों के प्रेम से लेकर प्रलय तक की अनकही दास्तां पढ़ें… बाढ़, बांध और भींगी आंखों की कहानी’
सुबह-सुबह इसी सूचना के साथ नींद खुलती कि बड़का नद्दी (बागमती की मुख्यधारा) में दाहर आ गेलई। बात 30-35 वर्ष पूर्व की है। किसान इस सूचना से प्रसन्न होते। जैसे बेटी नईहर आ रही हो। भारतीय संस्कृति में बेटी का साल में कुछ दिनों के लिए नईहर आना घर में उत्साह का मौका माना गया है। दाहर के आने की सूचना पाकर किसानों में खुशी की लहर दौड़ जाती। किसान कान की सूचना पर आंख को विश्वास दिलाने के लिए बड़का नद्दी देखने चले जाते। एक दूसरे से पूछते चलते कि कहां तक आया तो सूचना मिलती मुरहा(नदी के नजदीक का खेती क्षेत्र) तक पाट गया, उत्तरवारी टोला तक आ गया, पांड़े चौरी आ गया, बोकर में भी आ गया। हर किसी का चेहरा खिला हुआ।
गंगा-विद्यापति मिलन टाइप हर घर पहुंचती बागमती
धान की रोपनी शुरू। बिचड़ा घट गया तो किसान सीधे छिट भी देते तो खलिहान से लेकर कोठी, बेर्रही तक भर जाता। धान, मरुआ, धंईचा, पटुआ आदि से फसल से किसान थई-थई! जैसे गंगा विद्यापति से मिलने आ गई ठीक उसी प्रकार बागमती हर दरवाजे, हर किसी के बाड़ी-झाड़ी आकर अपनी पायल झनझना कर घूम फिर चली जाती। बागमती का माटी मानों ससुराल से सनेस में लाई हो।खेतों में उपज के लिए रासायनिक खाद की कोई जरूरत नहीं। खेतों में छिटने के लिए बथान के घूर का राख और भंइंस-गाय का गोबर ही काफी। उसका दिया हुआ अनाज तो किसान खलिहान से घर लाने में सकता नहीं था। खेंसारी एतना कि खलिहान में दउनी होते होते तक अगला दाहर।
बागमती का गांव गाड़ी-घोड़ा चलने वाला मुख्य पक्की सड़क से दूर होता। बागमती अपने नहिरा कुछ दिनों के लिए आई है तो खेतों में धनरोपनी से निश्चिंत होकर गांव की महिलाएं में नहिरा जाने को तैयार। कोसों जमीन पैदल चलना नहीं होगा। दरवाजे तक नाव आती है उस पर झिझिया खेलते धारा के साथ बहते कोसों का सफर कर लेगी। कोई नईहर ले जाने को क्यों झखएगा। रखे अपना बैल और गरी।
दाहर का होता था स्वागत, बाढ़ से भय पैदा होता है
इधर से नाव है ही उधर से भी कोई नाव वाला भेंटा ही जाएगा। ऐसे था दाहर आने का इंतजार।
सरकारी और पढ़ाकू लोगों के शब्दकोश ने जब से दाहर को ’बाढ़’ का नाम दिया, उसकी महबूबा विभीषिका ने खुद ब खुद अपना स्थान पा लिया। इसे स्थान दिया बागमती को हर दरवाजे जाने से रोकने वाले बांध ने। बागमती का गुस्सा अपने भाई-बहन, सखी-सहेली से मिलने से रोकने के कारण बांध पर चुपके-चुपके बढ़ते ही जा रहा है। वह अपने गुस्से को गाद के रूप में दोनों तटबंधों के बीच में इकट्ठा कर रही है। जिस दिन बांध के बाहर के जमीन से अंदर का जमीन पांच या दस फुट ऊंचा हुआ, बागमती बांध को चबा जाएगी।लेकिन इस गुस्से में उसे नहीं मालूम कि उसका नईहर उसके भाई बहिन उसके मिलाप के आंसू में विलीन हो काल-कलवित हो जाएंगे।
पहले दाहर आता था दो चार दिन में हरहराते हुए निकल जाता था। बांध पर जगह जगह पुल-पुलिया, सुलिस (स्विस) गेट न होने के कारण तटबंध का टूटना सुनिश्चित है। ग्रामीण किसान अपने अस्तित्व को लेकर तनिक भी चिंतित नहीं। कोरोना से कोरोनटाइन हो बच भी सकते हैं लेकिन बाढ़ जब बांध तोड़ेगी तो जो सामने पड़ेगा समाता चला जाएगा।
दाहर का स्वागत होता था, बाढ़ का नाम सुनते ही भय पैदा होता है।
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