राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती पर पढ़िये उनकी लिखी कविता ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’

रामधारी सिंह दिनकर वीर रस से भरी कविताएं आज भी लोगों की जुबान पर हैं। उनका नाम आते ही सभी को उनकी ओज और जोश से भर देने वाली कविताएं याद आने लगती हैं। दिनकर हिंदी कविता के अग्रणी कवियों में रहे हैं। उनकी कविताएं लोगों खासकर युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत रही हैं। भारत की आजादी के बाद उन्हें एक राष्ट्रवादी एवं विद्रोही कवि के रूप में जाना गया। दिनकर की वीर रस से भरी कविताएं आज भी लोगों की जुबान पर हैं। देश की अपनी कविताओं से प्रेरित करने वाले दिनकर का जन्म 25 सितंबर 1908 को बिहार के सिमरिया में हुआ था। दिनकर को देश के राष्ट्रकवि का दर्जा भी मिला।

गांधी जी के विचारों से हुए थे प्रभावित

दिनकर अपनी युवा अवस्था में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े रहे लेकिन बाद में वह गांधी जी के विचारों से प्रभावित हो गए। हालांकि वह खुद को एक ’खराब गांधीवादी’ बुलाते थे। दिनकर ने अपनी कविताओं के जरिए देश की युवा पीढ़ी में जोश एवं वीरता की भावना भरते रहे। उनका काव्य संग्रह ’कुरुक्षेत्र’ युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। कवि के रूप में अपनी पहचान रखने वाले दिनकर की निकटता राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रहण नारायण सिन्हा, श्री कृष्ण सिन्हा, रामबृक्ष बेनीपुरी के साथ रही। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ भी दिनकर की अच्छी घनिष्ठता रही।

राज्यसभा के लिए तीन बार चुने गए दिनकर

दिनकर राज्यसभा के लिए तीन बार चुने गए। साल 1959 में उन्हें पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया। वह भागलपुर विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे। साल 1975 के आपातकाल के दौरान दिनकर की कविता ’सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ काफी लोकप्रिय हुई। इस कविता की पंक्ति को जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में भी पढ़ी थीं। दिनकर ने कविताओं के अलावा कई पुस्तकें भी लिखीं जिनमें ’संस्कृति के चार अध्याय’ प्रमुख है। यह किताब भारत को समझने में काफी मददगार साबित होती है। इसमें मानव सभ्यता के विकास की कहानी औ भारत के निर्माण की कहानी बताई गई है।

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली

जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।“
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?“
’है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?“

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में

लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं

सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो

आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है