आज भी जस का तस है भिखारी के बिदेसिया का दर्द, भिखारी ठाकुर की जयंती पर पढ़े ये आलेख…

आज भिखारी ठाकुर की जयंती है। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों और गीतों के माध्यम से प्रवासी मजदूरों के दर्द को इंगित किया था। तब बिहार शरीफ ज्यादातर लोग मजदूरी करने कोलकाता जाते थे। भिखारी ठाकुर हमारे बीच अब नहीं है पर प्रवासी मजदूरों का दर्द अभी वैसा ही है। प्रवासी मजदूरों की वेदना अभी वैसे ही है।अब मजदूर काम की तलाश के लिए बिहार से दिल्ली पंजाब और हरियाणा का रुख करते हैं। बिहार के मजदूरों की बेबसी और त्रासदी उस समय पूरी दुनिया ने देखी जब कोरोना के कारण भारत में लॉकडाउन लगाया गया। हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर पैदल चलकर अपने गांव की ओर निकले। कईयों के कंधे पर छोटे-छोटे बच्चे थे । कई रास्ते में ही मर खप गए। कईयों ने पैदल गांव तक का सफर किया। यह आज का हिंदुस्तान है। आजाद हिंदुस्तान । प्रवासी मजदूरों की पीड़ा जस की तस।इन मजदूरों को प्रवासी कहने पर राजनेताओं को ऐतराज तो जरूर होता है, वह कहते हैं कि पूरा देश मजदूरों का है वह कहीं भी मजदूरी करें। पर ऐसा कहने के पीछे उन की कुटिल नीति छुपी होती है।

कागजी योजनाओं के आसपास ही घूमता रहा विकास का पहिया

आजादी के बाद लोकतंत्र आया, सरकारें बदलती रही, पर विकास का पहिया कहीं न कहीं बस कागजी योजनाओं के आसपास ही घूमता रहा। इन मजदूरों को लेकर कभी कोई ठोस नीति नहीं बनी। नरेगा मनरेगा जैसी योजनाएं चलाई गई पर वहां भी बिचौलियों का साम्राज्य ज्यादा दिखता है। कागज पर ही तरह-तरह के जुगत लगाए जाते हैं। कभी महीने 2 महीने का राशन सस्ता या मुफ्त देकर इन्हें वोट बैंक के रूप में बरकरार रखने की कोशिश तो की जाती है पर इनकी पीड़ा इनके दर्द को कम करने की कोशिश सरकारें नहीं करती। एक और जहां मजदूरों का पलायन तेजी से बिहार में हो रहा है वही खेती के लिए मजदूरों की कमी हो गई है।कई इलाकों में गेहूं काटे तक के लिए मजदूर नहीं मिलते। बिहार में खेती को कभी मुनाफे का सौदा नहीं माना जाता है। खेतों का रकबा भी कम है वह यत्र तत्र बिखरे हुए भी हैं और ऊपर से बाढ़ और सुखार हर बार कहर बनकर टूटता है। जो खेतीहर किसान है उनकी आय इतनी न्यूनतम है कि गुजारा करना तक मुश्किल।जो खेती के साथ दूसरे कामों में लगे हैं उनकी जिंदगी की गाड़ी किसी तरह चलती है। रोजगार के नाम पर बिहार में हर सरकार ने दावे तो खूब किये है ,पर कल कारखाने नहीं लगे। चीनी मिलों की स्थिति भी दिनोंदिन खराब होती चली गई ।अब गिने-चुने मिल ही बचे हैं। कल कारखाने ना लगने पर सरकार के पास एक बेहतर बहाना है। बिहार की भौगोलिक स्थिति को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। ऐसे में कमाई का जरिया ढुढने के लिए बिहार से बाहर लोगों को पलायन करना पड़ता है। रेलगाड़ियों के जनरल डब्बे में ढूस कर लोग पंजाब हरियाणा और दिल्ली की और निकलते हैं।

बिहार की त्रासदी उस समय भी थी जब भिखारी ठाकुर इसका दर्द बयां कर रहे थे और आज भी है। ऐसा भी नहीं कि बिहार से बाहर जाकर इन्हें रोजगार के बड़े साधन उपलब्ध हो जाते हैं वहां भी इनके जिंदगी बे मुश्किल से कटती है, पर भूखे पेट रहने से बेहतर है दो चार पैसे कमा लेना ज्यादा बेहतर समझते हैं। भिखारी ठाकुर की जयंती पर सरकारी आयोजन हर साल होता है राजनेता उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण करते हैं और उन्हें याद करते हैं पर वह यह भूल जाते हैं भिखारी ठाकुर ने जिंदगी भर जिसके लिए संघर्ष किया वह पीड़ा आज भी जस की तस है। भिखारी ठाकुर पर बड़ा बड़ा लंबा भाषण करने- बोलने से पहले इन्हें भिखारी ठाकुर के विचारों को समझना जरूरी है। फिलहाल तो यह प्रवासी मजदूरों की पीड़ा अब भी बिहार के गांव में एक त्रासदी त्रासदी है और भिखारी ठाकुर के गीत उस त्रासदी से मन हल्का करने का एक संभल जो प्रवासियों के होठों पर दर्द बनकर छलक उठता हैं
गवना कराइ सैंया घर बइठवले से,

अपने लोभइले परदेस रे बिदेसिया।।

चढ़ली जवानियां बैरन भइली हमरी रे,

के मोरा हरिहें कलेस रे बिदेसिया।।

# विवेक चंद्र